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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४७९ शुद्धतत्त्व के निरूपण में लगी है बुद्धि जिसकी और जो ज्ञानी जीव तत्त्व को अच्छी तरह जानता है, अनुभवी है; उसे एक द्रव्य के भीतर कोई अन्य द्रव्य रहता है - ऐसा कभी भी भासित नहीं होता। यदि ज्ञान ज्ञेय को जानता है तो वह तो ज्ञान के शुद्धस्वभाव का उदय है। ऐसा होने पर भी ज्ञान को अन्य द्रव्य के साथ स्पर्श होने की मान्यता से आकुलबुद्धिवाले कुछ लोग तत्त्व (शुद्धस्वरूप) से च्युत क्यों होते हैं ?
(मन्दाक्रान्ता) शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेषमन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः। ज्योत्सनारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।।२१६॥ रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतत्र यावत् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बाध्यतां याति बोध्यम् । ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।।२१७।।
(रोला) शुद्धद्रव्य का निजरसरूप परिणमन होता।
वह पररूप या पर उसरूप नहीं हो सकते। अरे चाँदनी की ज्यों भूमि नहीं हो सकती।
त्यों ही कभी नहीं हो सकते ज्ञेय ज्ञान के।।२१६ ।। शुद्धनय का निजरसरूप से परिणमन होता है अर्थात् आत्मा का ज्ञानादि स्वभावरूप परिणमन होता है; इसकारण क्या कोई अन्य द्रव्य उस ज्ञानादि स्वभाव का हो सकता है अथवा क्या वह ज्ञानादि स्वभाव किसी अन्य द्रव्य का हो सकता है ? नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि परमार्थ से तो एक द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ कोई संबंध ही नहीं है। ___ यद्यपि चाँदनी का रूप पृथ्वी को उज्ज्वल करता है, तथापि पृथ्वी चाँदनी की तो नहीं हो जाती; उसीप्रकार यद्यपि ज्ञान ज्ञेय को जानता है; तथापि ज्ञेय ज्ञान का तो नहीं हो जाता।
उक्त दोनों कलशों का सार यह है कि ज्ञान का समस्त ज्ञेयों को जानना कोई अपराध नहीं है; अपितु ज्ञान के स्वभाव का उदय ही है। जिसप्रकार पृथ्वी पर चाँदनी पड़ने से पृथ्वी चाँदनी की नहीं हो जाती; उसीप्रकार ज्ञेयों को जानने से ज्ञेय ज्ञान के नहीं हो जाते। इसलिए यदि परपदार्थ अपने ज्ञान के ज्ञेय बनते हों तो आकुलित होने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर को जानना भी ज्ञान का स्वभावपरिणमन ही है, विकार नहीं, विभावपरिणमन नहीं।
इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि स्व और पर सभी को जानना आत्मा का स्वभाव