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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
जो बात उत्थानिका के कलशों में कही गई है; अब वही बात आगामी गाथाओं में विस्तार से कहते हैं।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु।।३५६।। जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु॥३५७।। जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु॥३५८।। जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह दसणं दु ण परस्स दंसणं दसणं तं तु॥३५९।। एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदसणचरित्ते। सुणु ववहारणयस्य य वत्तव्वं से समासेण ।।३६०।। जह परदव् सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएग भावेण ॥३६१।। जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेणा
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण ॥३६२।। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) ज्योंकलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का ज्ञायक तो बस ज्ञायकही है।।३५६।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ।।३५७।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है ।३५८।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है।।३५९।। यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयककथन है परमार्थका। अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ।।३६०।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६१।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। बस त्योंहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६२।।