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समयसार
(रथोद्धता) यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः किंचनापि परिणामिनः स्वयमा व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।।२१४।।
(रोला) एक वस्तु हो नहीं कभी भी अन्य वस्तु की।
वस्तु वस्तु की ही है - ऐसा निश्चित जानो ।। ऐसा है तो अन्य वस्तु यदि बाहर लोटे।
तो फिर वह क्या कर सकती है अन्य वस्तु का ।।२१३।। स्वयं परिणमित एक वस्तु यदि परवस्तु का।
कुछ करती है - ऐसा जो माना जाता है।। वह केवल व्यवहारकथन है निश्चय से तो।।
___एक दूसरे का कुछ करना शक्य नहीं है ।।२१४।। जिसको स्वयं अनन्त शक्ति प्रकाशमान है - ऐसी वस्तु यद्यपि अन्य वस्तु के बाहर लोटती है; तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तु के भीतर प्रवेश नहीं करती; क्योंकि समस्त वस्तुयें अपनेअपने स्वभाव में निश्चित हैं - ऐसा माना जाता है। आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा होने पर भी मोहित जीव अपने स्वभाव से चलित होकर आकुल होता हुआ क्यों क्लेश पाता है?
तात्पर्य यह है कि वस्तुस्वभाव का नियम तो ऐसा है कि एक वस्तु दूसरी वस्तु में नहीं मिलती; फिर भी यह मोही प्राणी परज्ञेयों के साथ पारमार्थिक संबंध स्वीकार कर क्लेश पाता है - यह उसके अज्ञान की महिमा जानो।
इस लोक में एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है; इसलिए वस्तुतः तो वस्तु वस्तु ही है - यह निश्चय है। ऐसा होने से कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है?
स्वयं परिणमती वस्तु का अन्य वस्तु कुछ कर सकती है - ऐसा जो माना जाता है; वह व्यवहार से माना जाता है; निश्चय से तो अन्य वस्तु का अन्य वस्तु से कुछ भी संबंध नहीं है।
इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि भले ही व्यवहार से ऐसा कहा जाता हो कि वस्तु दूसरी वस्तु को करती-भोगती है; परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि एक वस्तु दूसरी वस्तु के भीतर प्रविष्ट ही नहीं होती, बाहर-बाहर ही लोटती है। बाहर-बाहर ही लोटती हई वह वस्तु अन्य वस्तु का क्या कर सकती है ? अत: निश्चयनय का यह कथन परमसत्य है कि कोई भी वस्तु अन्य वस्तु की कर्ताभोक्ता नहीं है।