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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४६५ (नर्दटक) ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।।२११।। (पृथ्वी ) बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनंतशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम् । स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुल: किमिह मोहित: क्लिश्यते ।।२१२।। (रथोद्धता) वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तता निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि ।।२१३।। अब इसी भाव का पोषक कलशकाव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) अरे कभी होता नहीं, कर्ता के बिन कर्म । निश्चय से परिणाम ही, परिणामी का कर्म ।। सदा बदलता ही रहे, यह परिणामी द्रव्य । एकरूप रहती नहीं, वस्तु की थिति नित्य ।।२११॥ वस्तुत: परिणाम ही निश्चय से कर्म है और परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं तथा कर्म कर्ता के बिना नहीं होता एवं वस्तु की स्थिति सदा एक-सी नहीं रहती; इसलिए वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि वस्तु की स्थिति सदा एक-सी नहीं रहती, वह निरन्तर पलटती रहती है। निश्चय से परिणाम परिणामी का ही होता है और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता। इसलिए प्रत्येक वस्तु स्वयं ही अपने परिणाम की कर्ता है। इसके बाद आत्मख्याति में आगामी गाथाओं की विषयवस्तु की उत्थानिका रूप तीन काव्य लिखे गये हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित । और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के।। पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में। फिर भी आकुल-व्याकुल होकर क्लेश पा रहा ।।२१२ ।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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