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समयसार
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण ॥३६३।। जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण ।।३६४।। एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते । भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो ।।३६५।।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६३।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६४।। यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयककथन है व्यवहार का।
अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना ।।३६५।। यद्यपि व्यवहार से परद्रव्यों का और आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है; दृश्य-दर्शक संबंध है, त्याज्य-त्याजक संबंध है; तथापि निश्चय से तो वस्तुस्थिति इसप्रकार है -
जिसप्रकार सेटिका अर्थात् खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई पर (दीवाल) की नहीं है; क्योंकि सेटिका (कलई) तो सेटिका ही है; उसीप्रकार ज्ञायक आत्मा तो ज्ञेयरूप परद्रव्यों का नहीं है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।
जिसप्रकार कलई पर की नहीं है, कलई तो कलई ही है; उसीप्रकार दर्शक पर का नहीं है, दर्शक तो दर्शक ही है।।
जिसप्रकार कलई पर की नहीं है, कलई तो कलई ही है; उसीप्रकार संयत (पर का त्याग करनेवाला) पर का नहीं है, संयत तो संयत ही है।
जिसप्रकार कलई पर की नहीं है, कलई तो कलई ही है; उसीप्रकार दर्शन (श्रद्धान) पर का नहीं है, दर्शन तो दर्शन ही है अर्थात् श्रद्धान तो श्रद्धान ही है।
इसप्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संदर्भ में निश्चयनय का कथन है और अब उस संबंध में संक्षेप से व्यवहारनय का कथन सुनो।
जिसप्रकार कलई अपने स्वभाव से दीवाल आदि परद्रव्यों को सफेद करती है; उसीप्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभाव से परद्रव्यों को जानता है।
जिसप्रकार कलई अपने स्वभाव से दीवाल आदि परद्रव्यों को सफेद करती है; उसीप्रकार जीव अपने स्वभाव से परद्रव्यों को देखता है।
जिसप्रकार कलई अपने स्वभाव से दीवाल आदि परद्रव्यों को सफेद करती है; उसीप्रकार