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________________ समयसार ४५६ ध्यान देना चाहिए। अब आगामी कलश में उक्त गाथाओं का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र जो मार्गदर्शन करते हैं, जो परामर्श देते हैं; वह इसप्रकार है - (शार्दूलविक्रीडित ) माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः कर्तारं कलयंत तं किल सदाभेदावबोधादधः। ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०५।। (मालिनी) क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्। अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः स्वयमयमभिषिंचश्चिच्चमत्कार एव ।।२०६।। A ) (रोला) अरे जैन होकर भी सांख्यों के समान ही, इस आतम को सदा अकर्ता तम मत जानो। भेदज्ञान के पूर्व राग का कर्ता आतम; भेदज्ञान होने पर सदा अकर्ता जानो ।।२०५।। हे आहतमत के अनुयायी जैनियो ! तुम भी सांख्यमतियों के समान आत्मा को अकर्ता मत मानो; भेदज्ञान के पूर्व उसे सदा रागादिभावों का कर्ता ही मानो और भेदज्ञान होने के बाद उसे सदा अचल, अकर्ता अर्थात् ज्ञाता ही देखो। इसप्रकार तेरह गाथाओं के सार को अपने में समेट लेनेवाले इस कलश में यही कहा गया है कि हे अरहन्तों के अनुयायी जैनी भाइयो ! सांख्यों के समान तुम भी आत्मा को सर्वथा अकर्ता मत मानो । अज्ञान-अवस्था में आत्मा को रागादिभावों का कर्ता और भेदज्ञान होने पर, सम्यग्ज्ञान होने पर उसे रागादिभावों का अकर्ता सहज ज्ञाता-दृष्टा स्वीकार करो। उक्त तेरह गाथाओं में सांख्यमत के समान रागादिभावों का सर्वथा अकर्ता माननेवाले जैनियों का अज्ञान दूर किया और अब आगामी चार गाथाओं में बौद्धमत के समान आत्मा को क्षणिक पर्याय जितना माननेवालों को समझायेंगे। आत्मा को सर्वथा अनित्य मानने से 'जो कर्ता, सो भोक्ता' वाली बात घटित नहीं होती, 'करे अन्य और भोगे अन्य' जैसी समस्या खड़ी हो जाती है। अरे भाई ! करे कोई और भोगे कोई दूसरा - यह तो सरासर अन्याय है। ऐसा न तो होता ही है और
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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