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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार न होना ही चाहिए। आगामी चार गाथाओं की विषयवस्तु की सूचना देने के लिए आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र ने दो कलश लिखे हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) वृत्त्यंशभेदतोऽत्यंतं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भुंक्तेऽन्य इत्येकांतश्चकास्तु मा ।। २०७३ केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो । जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।। ३४५ ।। ( रोला ) जो कर्ता वह नहीं भोगता इस जगती में, ऐसा कहते कोई आतमा क्षणिक मानकर । नित्यरूप से सदा प्रकाशित स्वयं आतमा, मानो उनका मोह निवारण स्वयं कर रहा ।। २०६ ।। ( सोरठा ) वृत्तिमान नष्ट, वृत्त्यंशों के भेद से । कर्ता भोक्ता भिन्न, इस भय से मानो नहीं । । २०७ ।। ४५७ इस जगत में कोई क्षणिकवादी आत्मतत्त्व को क्षणिक मानकर अपने मन में कर्ता और भोक्ता का भेद करते हैं अर्थात् ऐसा मानते हैं कि कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य । उनके मोह ( अज्ञान) को यह चैतन्यचमत्कार आत्मा स्वयं ही नित्यतारूप अमृत के समूह से सींचता हुआ दूर करता है। वृत्त्यंशों अर्थात् पर्यायों के भेद से वृत्तिमान द्रव्य सर्वथा नष्ट हो जाता है - ऐसी कल्पना करके अन्य कर्ता और अन्य भोक्ता - ऐसा एकान्त प्रकाशित मत करो। इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि हे जैनियो ! बौद्धों के समान आत्मा को क्षणिक पर्याय जितना ही मानकर और 'करे अन्य और भोगे अन्य' की मान्यता से ग्रस्त होकर स्वछन्दता से अनर्गल प्रवर्तन मत करो, अन्यथा चार गति और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करना पड़ेगा। साथ में यह भी कहा गया है कि नित्य आत्मा का अनुभव अथवा आत्मा की नित्यता का अनुभव ही उक्त मान्यता को समाप्त करेगा । अतः प्रत्यभिज्ञान की हेतुभूत आत्मा की नित्यता का नित्य • अनुभव करो 1 जो बात विगत दो कलशों में कही गई है, अब उसी बात को आगामी चार गाथाओं में कहते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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