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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४५५ के प्रारम्भ से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से पूर्ण होने के कारण आत्मा को ही आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव), विशेष अपेक्षा से भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणाम से परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञातृत्व के कारण साक्षात् अकर्ता नहीं हो जाता।"
तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन भी इन गाथाओं का ऐसा ही अर्थ करते हैं, तथापि हिंसादि के संदर्भ में नयविभागपूर्वक किया गया उनका कथन बहत ही मार्मिक है, जो यहाँ पाठकों के लाभार्थ दिया जा रहा है - ____ “कोई कहता है कि जीव से प्राण भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि अभिन्न मानें तो जब जीव का विनाश नहीं होता है तो प्राणों का भी विनाश नहीं होगा - ऐसी स्थिति में हिंसा कैसे संभव है ? और यदि प्राण जीव से भिन्न हैं तो प्राणों के नाश होने पर भी जीव का तो कुछ बिगड़ता नहीं; अतः इस स्थिति में भी हिंसा नहीं हुई।
इसके उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं कि तुम्हारा यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि कायादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद।
जिसप्रकार तपे हुए लोहे के गोले से अग्नि को उसीसमय पृथक् नहीं किया जा सकता; उसीप्रकार वर्तमान काल में कायादि प्राणों को जीव से पृथक् नहीं किया जा सकता; इसलिए व्यवहारनय से कायादि प्राणों का जीव से अभेद है; किन्तु मरणकाल में कायादि प्राण जीव के साथ नहीं जाते - इसकारण निश्चयनय से कायादि प्राणों के साथ जीव का भेद है। ___ यदि एकान्त से जीव और कायादि में भेद स्वीकार किया जाये तो जिसप्रकार दूसरे की काया के छेदने-भेदने पर अपने को दुःख नहीं होता; उसीप्रकार अपनी काया को छिन्न-भिन्न करने पर भी दुःख नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा तो नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष से विरोध आता है।
प्रश्न - ऐसा होने पर भी यह हिंसा तो व्यवहार से ही हुई, निश्चय से तो नहीं हुई ?
उत्तर - आप ठीक कहते हैं - यह हिंसा व्यवहार से ही होती है तथा पाप और उसके फल में नरकादि गति के दुःखों की प्राप्ति भी व्यवहार से ही होती है - यह बात हमें स्वीकार ही है।
अब यदि आपको नरकादि के दुःख इष्ट हों तो खूब हिंसा कीजिए और उनसे डर लगता हो तो व्यवहार हिंसा छोड़ दीजिए।
अतः यह निश्चित ही है कि जैनमत में सांख्यमत के समान आत्मा एकान्त से अकर्ता नहीं है; किन्तु रागादि विकल्परहित स्वानुभूति लक्षणवाले भेदज्ञान के काल में कर्मों का कर्ता नहीं है, शेषकाल में कर्मों का कर्ता है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि यह आत्मा यद्यपि परमशुद्धनिश्चयनय से सभी कर्मों का अकर्ता ही है; तथापि अशुद्धनिश्चयनय से रागादि भावकर्मों का और असद्भूतव्यवहारनय से द्रव्यकर्मों तथा नोकर्मों का कर्ता भी है।
व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ माननेवालों को आचार्य जयसेन के उक्त संकेत पर विशेष