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समयसार अवस्थित असंख्य-प्रदेशवाले एक (आत्मा) को पुद्गलस्कन्ध की भाँति, प्रदेशों के प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता; क्योंकि प्रदेशों का प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो उसके एकत्व का व्याघात हो जायेगा।
न चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचनविकाशनयोरपि शुष्काचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात्।
यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव तिष्ठति. तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यंतविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादि भावानां न कर्ता भवति, भवंति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृप्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहत्येव।
ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमंतव्य; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात् ।।३३२-३४४।।
तात्पर्य यह है कि स्कन्ध अनेक परमाणुओं का बना हुआ है, इसलिए उसमें से परमाणु निकल जाते हैं तथा उसमें आते भी हैं; परन्तु आत्मा निश्चित असंख्यातप्रदेशवाला एक ही द्रव्य है, इसलिए वह अपने प्रदेशों को निकाल नहीं सकता तथा अधिक प्रदेशों को ले नहीं सकता।
और सकल लोकरूपी घर के विस्तार से परिमित जिसका निश्चित निज-विस्तार संग्रह है (अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके (आत्मा के) प्रदेशों के संकोचविकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता; क्योंकि प्रदेशों के संकोच-विस्तार होने पर भी, सूखे-गीले चमड़े की भाँति, निश्चित निज विस्तार के कारण उसे (आत्मा को) हीनाधिक नहीं किया जा सकता। इसप्रकार आत्मा के द्रव्यरूप आत्मा का कर्तृत्व नहीं बन सकता।
और 'वस्तुस्वभाव का सर्वथा मिटना अशक्य होने से ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव से ही सदा स्थित रहता है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्व के अत्यन्त विरुद्धता होने से, मिथ्यात्वादि भावों का कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिए उनका कर्ता कर्म ही है।
ऐसी जो वासना (अभिप्राय-झुकाव) प्रगट की जाती है, वह भी 'आत्मा आत्मा को करता है' - इस (पूर्वोक्त) मान्यता का अतिशयतापूर्वक घात करती है; क्योंकि सदा ज्ञायक मानने से आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ।
इसलिए, ज्ञायकभाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञानरूप ज्ञानपरिणाम को करता है; इसलिए उसके कर्तृत्व को स्वीकार करना चाहिए अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कथंचित् कर्ता है; वह भी तबतक कि जबतक भेदविज्ञान