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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४५१ __ जो पर को मारता है और जो पर के द्वारा मारा जाता है; वह प्रकृति है, जिसे परघात नामक कर्म कहा जाता है। इसलिए हमारे उपदेश में कोई जीव उपघातक (मारनेवाला) नहीं है; क्योंकि कर्म ही कर्म को मारता है - ऐसा कहा गया है। कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः । कर्मभिः स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभिः ।।३३२।। कर्मभिः सुखी क्रियते दुःखी क्रियते तथैव कर्मभिः। कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ।।३३३।। कर्मभिर्धाम्यते ऊर्ध्वमधश्चापि तिर्यग्लोकं च । कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किंचित् ।।३३४।। यस्मात्कर्म करोति कर्म ददाति हरतीति यत्किंचित् । तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवन्त्यापन्नाः ।।३३५।। पुरुष: स्त्र्यभिलाषी स्त्रीकर्म च परुषमभिलषति । एषाचार्यपरंपरागतेदृशी तु श्रुतिः ।।३३६।। तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे। यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितम् ।।३३७।। यस्माद्धति परं परेण हन्यते च सा प्रकृतिः। एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति ।।३३८।। तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे। यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हंतीति भणितम् ।।।३३९।। एवं सांख्योपदेशं ये तु प्ररूपयंतीदृशं श्रमणाः। तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्चाकारकाः सर्वे ।।३४०।। अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति। मिथ्यास्वभावः तवैतज्जानतः ।।३४१।। आत्मा नित्योऽसंख्येयप्रदेशो दर्शितस्तु समये । नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तुं यत् ।।३४२।। जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रंखल। ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम् ।।३४३।। अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम् । तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।।३४४।। ऐसे सांख्यमत का उपदेश जो श्रमण (जैन मुनि) प्ररूपित करते हैं, उनके मत में प्रकृति ही करती है; आत्मा तो पूर्णत: अकारक है - ऐसा सिद्ध होता है। अथवा यदि तुम यह मानते हो कि मेरा आत्मा अपने द्रव्यरूप आत्मा को करता है तो तुम्हारा यह मानना मिथ्या है; क्योंकि सिद्धान्त में आत्मा को नित्य और असंख्यातप्रदेशी बताया गया है, वह उससे हीन या अधिक नहीं हो सकता और विस्तार की अपेक्षा भी जीव को जीवरूप निश्चय से लोकमात्र जाने क्या वह उससे हीन या अधिक होता है; यदि नहीं तो फिर एष
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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