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________________ समयसार ४५२ वह द्रव्य को कैसे करता है ? अथवा ज्ञायकभाव तो ज्ञानस्वभाव में स्थित रहता है - यदि ऐसा माना जाये तो इससे आत्मा स्वयं अपने आत्मा को नहीं करता - यह सिद्ध होगा। ___ कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तेः । ___ कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव मिथ्यादृष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति, आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपतैः। ___ अपरमपि यद्यावत्किंचिच्छुभाशुभंतत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमतरेण तदनुपपत्तेः। यत एवं समस्तमपि स्वतंत्र कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवा: नित्यमेवैकांतेनाकार एवेति निश्चिनुमः । उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि यदि भावकर्म का कर्ता कर्म को ही माना जाये तो स्याद्वाद के साथ विरोध आता है; इसकारण आत्मा को अज्ञान-अवस्था में अपने अज्ञानभाव रूप भावकर्म का कर्ता कथंचित स्वीकार करना ही सही है। क्योंकि इसमें स्याद्वाद का विरोध नहीं आता। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "कर्म ही आत्मा को अज्ञानी करता है; क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्म के उदय के बिना अज्ञान की अनुपपत्ति है। कर्म ही आत्मा को ज्ञानी करता है; क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्म के क्षयोपशम के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही सुलाता है; क्योंकि निद्रा नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही जगाता है; क्योंकि निद्रा नामक कर्म के क्षयोपशम के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही सुखी करता है; क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही दुःखी करता है; क्योंकि असातावेदनीय नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है; क्योंकि मिथ्यात्वकर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही असंयमी करता है; क्योंकि चारित्रमोह नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। कर्म ही ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिर्यग्लोक में भ्रमण कराता है; क्योंकि आनुपूर्वी नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है। दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ-अशुभ है, वह सब कर्म ही करता है; क्योंकि प्रशस्त
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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