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समयसार
सांख्य के उपदेशसम जो श्रमण प्रतिपादन करें। कर्ता प्रकृति उनके यहाँ पर है अकारक आतमा ।।३४०।।
अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि। ऐसो मिच्छसहावो तुम्हं एवं मुणंतस्स ॥३४१।। अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि । ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य कादं जे॥३४२।। जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु। तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।।३४३।। अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं। तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ।।३४४।।
या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे । तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना ।।३४१।। क्योंकि आतम नित्य है एवं असंख्य-प्रदेशमय । ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है ।।३४२।। विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है। ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ।।३४३।। यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में।
तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ।।३४४।। जीव कर्मों द्वारा अज्ञानी किया जाता है और कर्मों द्वारा ही ज्ञानी भी किया जाता है, कर्मों द्वारा सुलाया जाता है और कर्मों द्वारा ही जगाया जाता है, कर्मों द्वारा ही सुखी किया जाता है
और कर्मों द्वारा ही दुःखी किया जाता है; कर्म ही उसे मिथ्यात्व को प्राप्त कराते हैं और कर्म ही असंयमी बनाते हैं। इस जीव को कर्मों द्वारा ही ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक का भ्रमण कराया जाता है। अधिक क्या कहें, जो कुछ भी शुभ और अशुभ है, वह सब कर्म ही करते हैं। इसप्रकार कर्म ही करता है, कर्म ही देता है और कर्म ही हर लेता है; जो कुछ भी करता है, वह सब कर्म ही करता है। इसप्रकार सभी जीव सर्वथा अकारक ही सिद्ध होते हैं।
पुरुषवेद कर्म स्त्री का अभिलाषी है और स्त्रीवेद कर्म पुरुष की अभिलाषा करता है - ऐसी यह आचार्यों की परम्परागत श्रुति है। इसप्रकार हमारे उपदेश में तो कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है; क्योंकि कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है - ऐसा कहा है।