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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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कर्म करते सुखी एवं दुःखी करते कर्म ही। मिथ्यात्वमय कर्महि करे अर असंयमी भी कर्म ही ।।३३३।।
कम्मेहि भमाडिज्जदि उडढमहो चावि तिरियलोयं च। कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि॥३३४।। जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि । तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होति आवण्णा ॥३३५।। पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि। एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ।।३३६।। तम्हा ण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं ।।३३७।। जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी। एदेणत्थेण किर भण्णदि परघादणामेत्ति ॥३३८॥ तम्हा ण को वि जीवो वघादेओ अत्थि अम्ह उवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कंमं घादेदि इवि भणिदं॥३३९॥ एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं समणा । तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे॥३४०।।
कर्म ही जिय भ्रमाते हैं ऊर्ध्व-अध-तिरलोक में। जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें।।३३४॥ कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा । यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आतमा।।३३५|| नरवेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को। परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है।।३३६।। अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे उपदेश में। क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को।।३३७।। जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से। परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है ।।३३८।। परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में। क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को।।३३९।।