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________________ समयसार ४४८ और न पौद्गलिक कर्म ही इनको करता है। कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहि। कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ।।३३२।। कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं। कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव ।।३३३।। अब आगामी गाथाओं के भाव का सूचक काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है (रोला) कोई कर्ता मान कर्म को भावकर्म का, आतम का कर्तृत्व उड़ाकर अरे सर्वथा। और कथंचित् कर्ता आतम कहनेवाली; स्याद्वादमय जिनवाणी को कोपित करते ।। उन्हीं मोहमोहितमतिवाले अल्पज्ञों के, __ संबोधन के लिए सहेतुक स्याद्वादमय । वस्तु का स्वरूप समझाते अरे भव्यजन, अब आगे की गाथाओं में कुन्दकुन्द मुनि ।।२०४।। कई लोग आत्मघाती एकान्तवादी रागादि विकारीभावों का कर्ता पौदगलिककों को ही मानकर आत्मा के कर्तृत्व को सर्वथा उड़ाकर 'आत्मा रागादिभावों का कथंचित् कर्ता है' - ऐसा कहनेवाली श्रुति जिनवाणी को कोपित करते हैं; तीव्रमोह से मोहित बुद्धिवाले उन लोगों की बुद्धि की संशुद्धि के लिए आगामी गाथाओं में अनेकान्तमयी वस्तुस्थिति का विवेचन किया जाता है। आगामी तेरह गाथाओं के सूचक इस कलश काव्य में यही कहा गया है कि जैनदर्शन स्याद्वादी दर्शन है और उसके अनुसार अज्ञानी आत्मा रागादिभावरूप भावकर्मों का कर्ता-भोक्ता है और ज्ञानी आत्मा इनका कर्ता-भोक्ता नहीं है। इसे नय लगाकर बात करें तो इसप्रकार भी कह सकते हैं कि अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा रागादिभावों का कर्ता-भोक्ता है और शुद्धनिश्चयनय से वह इनका कर्ता-भोक्ता नहीं है। ___ अब गाथाओं द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्ता भी है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत) कर्म अज्ञानी करे अर कर्म ही ज्ञानी करे। जिय को सुलावे कर्म ही अर कर्म ही जाग्रत करे ।।३३२।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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