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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार नय से यह आत्मा कर्मोदय के निमित्तानुसार होनेवाले रागादि भावकों रूप भी परिणमित होता है, रागादि औपाधिकभावों का कर्ता-भोक्ता भी होता है।
(शार्दूलविक्रीडित ) कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञायाः प्रकृते: स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः । नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।। कर्मैव प्रवितळ कर्त हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छुति. कोपिता। तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थिति: स्तूयते ।।२०४।। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) अरे कार्य कर्ता के बिना नहीं हो सकता,
भावकर्म भी एक कार्य है सब जग जाने। और पौद्गलिक प्रकृति सदा ही रही अचेतन; __ वह कैसे कर सकती चेतन भावकर्म को ।। प्रकृति-जीव दोनों ही मिलकर उसे करें यदि,
तो फिर दोनों मिलकर ही फल क्यों ना भोगें? भावकर्म तो चेतन का ही करे अनुसरण,
इसकारण यह जीव कहा है उनका कर्ता ।।२०३।। भावकर्म कार्य है, इसकारण वह अकृत नहीं हो सकता, उसका कर्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिए; क्योंकि कार्य कर्ता के बिना नहीं होता। __ वह भावकर्मरूप कार्य जीव और पौद्गलिक प्रकृति - इन दोनों के द्वारा मिलकर किया हुआ कार्य भी नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा मानने पर जो कर्ता, सो भोक्ता' - इस नियम के अनुसार जड़प्रकृति को भी उसके फल को भोगने का प्रसंग प्राप्त होगा।
प्रकृति का अचेतनत्व तो प्रगट ही है और भावकर्म चेतन है; इसलिए वह चिदविलासरूप भावकर्म अकेली प्रकृति का भी कार्य नहीं हो सकता।
पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है; इसलिए चेतन का अनुसरण करनेवाले भावकर्म का कर्ता चेतन जीव ही है और वह भावकर्म जीव का ही कर्म है।
इसप्रकार इस कलश में अनेकप्रकार की युक्तियाँ देकर यह सिद्ध किया गया है कि मोह-रागद्वेषरूप भावकर्मों का कर्ता-भोक्ता अज्ञानी आत्मा है; न तो ज्ञानी आत्मा ही इनका कर्ता-भोक्ता है