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समयसार अब इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करनेवाला कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(वसंततिलका) ये तु स्वभावनियमं कलयंति नेममज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः। कुर्वति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।
(रोला) जब कोई संबंध नहीं है दो द्रव्यों में,
तब फिर कर्ताकर्मभाव भी कैसे होगा ? इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो;
सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनीजन ।।२०१।। क्योंकि इस लोक में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सभीप्रकार के संबंधों का निषेध किया गया है; इसलिए जहाँ वस्तुभेद है, वहाँ कर्ता-कर्मपना घटित नहीं होता। इसप्रकार हे मुनिजनो एवं लौकिकजनो ! तुम तत्त्व को अकर्ता ही देखो।
तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा पर का अकर्ता ही है - ऐसा जानो।
इसके बाद आचार्य अमृतचन्द्र आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते,
अरे विचारे वे तो डूबे भवसागर में। विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे,
भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना ॥२०२॥ आचार्यदेव खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अरे ! जो लोग इस वस्तुस्वभाव के नियम को नहीं जानते हैं; अज्ञान में डूबे हुए वे बेचारे कर्मों को करते हैं; इसलिए भावकर्म के कर्ता होते हैं। भावकर्मों का कर्ता चेतन स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं।
तात्पर्य यह है कि अज्ञान-अवस्था में अज्ञानी आत्मा भावकों का कर्ता होता है।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि जो वस्तुस्वरूप के इस नियम को नहीं जानते हैं कि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन का कर्ता-धर्ता नहीं है; वे अज्ञानी आत्मा स्वयं को पर का कर्ता मानने के कारण पर को कर्ता मानने रूप अज्ञानभाव के कर्ता होते हैं। तात्पर्य यह है कि वे लोग मानते तो ऐसा हैं कि हम परद्रव्य के कर्ता हैं, पर वे पर के कर्ता तो नहीं होते; किन्तु पर को करने के भावरूप अपने भाव के, अपने अज्ञान भाव के, अपने राग के कर्ता अवश्य होते हैं।
३२७वीं गाथा के उपरान्त तात्पर्यवृत्ति में चार गाथायें ऐसी आती हैं, जो आत्मख्याति में आगे