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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्थाः । जानंति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि कि चित ।। ३ २ ४ ।। यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् । न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ।। ३२५ ।। एवमेव मिथ्यादृष्टिर्ज्ञानी निःसंशयं भवत्येषः ।
यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।। ३२६ ।। तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम् ।
परद्रव्ये जानन् जानीयान् दृष्टिरहितानाम् ।। ३२७ ।। अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यंति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यंति ।
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ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्यादृष्टि:, तथा यदि ज्ञान्यपि कथंचिद् व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्यादृष्टिरेव स्यात् ।
अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् ।। ३२४-३२७ ।। ( वसंततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे पश्चन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।। २०१ ॥
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इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है.
“व्यवहारविमूढ़ अज्ञानीजन ही परद्रव्य के संदर्भ में ऐसा मानते हैं कि 'यह मेरा है' और निश्चय में प्रतिबुद्ध ज्ञानीजन परद्रव्य के संदर्भ में ऐसा ही मानते हैं कि 'यह मेरा नहीं है' ।
जिसप्रकार इस लोक में कोई व्यवहारविमूढ़ दूसरे ग्राम का रहनेवाला व्यक्ति किसी दूसरे गाँव के बारे में यह कहे कि यह मेरा गाँव है तो उसकी वह मान्यता मिथ्या ही है, वह तत्संबंधी मिथ्यादृष्टि ही है; उसीप्रकार यदि कोई ज्ञानी भी कथंचित् व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्य को 'यह मेरा है' इसप्रकार देखे, जाने, माने तो उस समय वह भी निःसंशय रूप से परद्रव्य को निजरूप करता हुआ मिथ्यादृष्टि ही होता है ।
इसलिए तत्त्वज्ञ 'समस्त परद्रव्य मेरे नहीं हैं' - यह जानकर यह निश्चितरूप से जानता है कि लोक और श्रमणों - दोनों के ही परद्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय, उनकी सम्यग्दर्शनरहितता के कारण ही है।"