________________
४४२
समयसार
कर्तृत्व-कर्मत्व संबंध का अभाव होने से आत्मा परद्रव्य का कर्ता कैसे हो सकता है ?
ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था। जाणंति णिच्छएण दुण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि॥३२४।। जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररटुं। ण य होंति जस्स ताणि दुभणदि य मोहेण सो अप्पा ॥३२५।। एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणतो अप्पयं कुणदि ॥३२६।। तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं।
परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणारखा इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि आत्मा और परद्रव्यों के बीच किसी भी प्रकार कोई संबंध नहीं है। ऐसी स्थिति में जब कर्ता-कर्मसंबंध भी नहीं है तो फिर आत्मा कर्मों का कर्ता कैसे हो सकता है ?
अब आगामी गाथाओं में यह कहते हैं कि भले ही अज्ञानी परद्रव्य को अपना कहें, उनका कर्ता-धर्ता भी अपने को मानें; पर ज्ञानीजन यह अच्छी तरह जानते हैं कि परद्रव्य मेरा नहीं है और न मैं उसका कर्ता-धर्ता गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) अतत्त्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें। पर तत्त्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं।।३२४।। ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिसतरह । किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ।।३२५।। इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' - जानकर अपना करे। संशय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना ।।३२६।। 'मेरे नहीं ये' - जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते।
है अज्ञता कर्तृत्वबुद्धि लोक एवं श्रमण की।।३२७।। वस्तुस्वरूप को नहीं जाननेवाले पुरुष व्यवहार कथन को ही परमार्थरूप से ग्रहण करके ऐसा कहते हैं कि परद्रव्य मेरा है; परन्तु ज्ञानीजन निश्चय से ऐसा जानते हैं कि परमाणुमात्र परपदार्थ मेरा नहीं है।
जिसप्रकार कोई मनुष्य इसप्रकार कहता है कि हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर और हमारा राष्ट्र है; किन्तु वे उसके नहीं हैं; वह मोह से ही ऐसा कहता है कि वे मेरे हैं।
इसीप्रकार यदि कोई ज्ञानी भी परद्रव्य को निजरूप करता है, परद्रव्य को निजरूप मानता है, जानता है तो ऐसा जानता हुआ वह नि:संदेह मिथ्यादृष्टि है।
इसलिए परद्रव्य मेरे नहीं हैं - यह जानकर तत्त्वज्ञानीजन लोक और श्रमण - दोनों के परद्रव्य में कर्तृत्व के व्यवसाय को सम्यग्दर्शन रहित पुरुषों का व्यवसाय ही जानते हैं।