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________________ ४४५ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३४५ से ३४८वीं गाथाओं के रूप में विद्यमान हैं। उनकी चर्चा यथास्थान होगी ही; अत: यहाँ उनके बारे में कुछ भी लिखना आवश्यक नहीं है। मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्टी करेदि अप्पाणं। तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो ।।३२८।। अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं । तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।।३२९।। अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ।।३३०।। अह , पयडी [ जीवो पोम्पलदव्वं करेदि मिच्छतं । तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ।।३३१।। जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को गाथाओं के माध्यम से सिद्ध करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदिजीव को। फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो।।३२८।। अथवा करे यह जीव पुद्गल दरब के मिथ्यात्व को। मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब ही सिद्ध होगा जीव ना ।।३२९।। यदिजीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्वमय पुद्गल करे। फल भोगना होगा उभय को उभयकृत मिथ्यात्व का ।।३३०।। यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब । मिथ्यात्वमय पुद्गल सहज,क्या नहीं यह मिथ्या कहो?॥३३१॥ मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व नामक कर्मप्रकृति आत्मा को मिथ्यादृष्टि करती है, बनाती है - यदि ऐसा माना जाये तो तुम्हारे मत में अचेतनप्रकृति जीव के मिथ्यात्वभाव की कर्ता हो गई। इसकारण मिथ्यात्वभाव भी अचेतन सिद्ध होगा। अथवा यह जीव पुद्गलद्रव्यरूप मिथ्यात्व को करता है - यदि ऐसा माना जाये तो पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा, जीव नहीं। अथवा जीव और प्रकृति - दोनों मिलकर पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप करते हैं - यदि ऐसा माना जाये तो जो कार्य दोनों के द्वारा किया गया, उसका फल दोनों को ही भोगना होगा। अथवा पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप न तो प्रकृति करती है और न जीव करता है
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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