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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४३९ होती है, वही भावना समस्त रागादिभावों से रहित शुद्ध-उपादानरूप होने से मोक्ष का कारण होती है, शुद्धपारिणामिकभाव मोक्ष का कारण नहीं होता और जो शक्तिरूप मोक्ष है, वह तो शुद्धपारिणामिकभाव में पहले से ही विद्यमान है। यहाँ तो व्यक्तिरूप अर्थात् पर्यायरूप मोक्ष का विचार किया जा रहा है। सिद्धान्त में भी ऐसा कहा है कि शुद्धपारिणामिकभाव निष्क्रिय है। ___'निष्क्रिय' शब्द से तात्पर्य है कि शुद्धपारिणामिकभाव बंध की कारणभूत रागादि परिणतिरूप क्रिया व मोक्ष की कारणभूत शुद्धभावनापरिणतिरूप क्रिया से तद्रप या तन्मय नहीं होता।
इससे यह प्रतीत होता है कि शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप होता है, ध्यानरूप नहीं होता; क्योंकि ध्यान विनश्वर होता है।
योगीन्द्रदेव ने भी कहा है - हे योगी ! परमार्थदृष्टि से तो यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बंध-मोक्ष को करता है - ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
दूसरी बात यह है कि विवक्षित-एकदेशशुद्धनिश्चयनय के आश्रित यह भावना निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणवाले क्षायोपशमिकज्ञानरूप होने से यद्यपि एकदेशव्यक्तिरूप होती है; तथापि ध्यातापुरुष यही भावना करता है कि मैं तो सकलनिरावरण, अखण्ड, एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्धपारिणामिक परमभावलक्षणवाला निजपरमात्मद्रव्य ही हूँ, खण्डज्ञानरूप नहीं हूँ।"
उपर्युक्त सभी व्याख्यान आगम और अध्यात्म (परमागम) - दोनों प्रकार के नयों के परस्परसापेक्ष अभिप्राय के अविरोध से सिद्ध होता है - ऐसा विवेकियों को समझना चाहिए।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि औपशमिकादि पाँच भावों में द्रव्यरूप परमपारिणामिकभाव न तो बंध का कारण है और न मोक्ष का; क्योंकि वह बंध-मोक्ष के परिणामों से रहित निष्क्रियतत्त्व है। उक्त परमपारिणामिकभाव के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले औपशमिकादि भाव ही मुक्ति के कारण हैं और उसकी उपेक्षापूर्वक पर के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले औदयिकभाव बंध के कारण हैं।
तात्पर्य यह है कि उक्त परमपारिणामिकभाव में अपनापन स्थापित करनेवाली श्रद्धागुण की पर्याय सम्यग्दर्शन, उसे ही निजरूप जाननेवाली ज्ञानगुण की पर्याय सम्यग्ज्ञान और उसी में जमनेरमनेवाली चारित्रगुण की ध्यानरूप सम्यक्चारित्र पर्यायें ही मुक्ति के कारण हैं तथा उससे भिन्न परपदार्थों में अपनापन स्थापित करनेवाली श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के परिणमन बंध के कारण हैं।
इसप्रकार मुक्ति के मार्ग में श्रद्धेय, ध्येय और परमज्ञेयरूप तो उक्त परमपारिणामिकभाव है और साधन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकभाव हैं; जिन्हें अध्यात्मभाषा में शुद्धोपयोगरूप परिणाम कहते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र जिसे सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार नाम देते हैं, उसे ही आचार्य जयसेन समयसार की चूलिका कहते हैं। इतना अन्तर अवश्य है कि यह समयसार चूलिका यहाँ से आरंभ होती है और आत्मख्याति का सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार १२ गाथा पहले ही आरंभ हो जाता है।