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समयसार
( अनुष्टुभ् ) ये तु कर्तारमात्मानं पश्यंति तमसा तताः।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुताम् ।।१९९।। लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते। समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ।३२१।। लोयसमणाणमेयं सिद्धतं जड़ ण दीसदि विसेसो। लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि।।३२२॥ एवं ण को वि मोक्खो दीसदि लोयसमणाणं दोण्ह पि।
णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ।।३२३।। अब आगामी गाथाओं की सूचना देनेवाला कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) निज आतमा ही करे सबकुछ मानते अज्ञान से। हों यद्यपि वे मुमुक्षु पर रहित आतमज्ञान से।। अध्ययन करें चारित्र पालें और भक्ति करें पर।
लौकिकजनों वत् उन्हें भी तो मुक्ति की प्राप्ति न हो।।१९९।। जो अज्ञानान्धकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं; वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों; तथापि लौकिकजनों की भाँति उन्हें भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
यहाँ पर के कर्तृत्व की मान्यतावाले जैन श्रमणों को लौकिकजनों के समान बताकर उन्हें विशेष सावधान किया है और परकर्तृत्व संबंधी मान्यता छोड़ने की प्रबल प्रेरणा दी है।
३२१ से ३२३ तक की गाथाओं की उत्थानिकारूप १९९वें कलश में जो बात कही गई है। वही बात अब इन गाथाओं में कहते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को। रक्षा करूँ षट्काय की यदि श्रमण भी माने यही ।।३२१।। तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा। सम मान्यता में विष्णु एवं आतमा कर्ता रहा ।।३२२।। इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोकरु श्रमण को। रे मोक्ष दोनों का दिखाई नहीं देता है मझे॥३२३।।