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________________ ४३८ समयसार इसके बाद किंच विशेष: लिखकर इसी प्रकरण से संबंधित कुछ ऐसी विशेष विषयवस्तु प्रस्तुत करते हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ आत्मार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी भी है। यद्यपि यह विषयवस्तु ३२०वीं गाथा के उपरान्त ही आई है; तथापि यह ३२०वीं गाथा की टीका नहीं है; क्योंकि ३२०वीं गाथा की टीका समाप्त करके अधिकार की समाप्ति की घोषणा करने के उपरान्त एक प्रकार से परिशिष्ट के रूप में ही आचार्य जयसेन ने यह सामग्री प्रस्तुत की है; इसलिए यह एक स्वतंत्र प्रकरण ही है। उक्त विषयवस्तु का भावानुवाद मूलत: इसप्रकार है - “अब यह विचारते हैं कि औपशमिकादि पाँच भावों में से मोक्ष किस भाव से होता है? उक्त पाँचों भावों में औपशमिकभाव, क्षायोपशमिकभाव, क्षायिकभाव और औदयिकभाव - ये चार भाव तो पर्यायरूप हैं और शुद्धपारिणामिकभाव द्रव्यरूप है। पदार्थ परस्परसापेक्ष द्रव्य-पर्यायमय है। वहाँ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - इन तीन पारिणामिकभावों में शुद्ध जीवत्वशक्ति लक्षणवाला जो शुद्धपारिणामिकभाव है, वह शुद्धद्रव्यार्थिकनय के आश्रित होने से निरावरण है और बंध-मोक्षपर्यायरूप परिणति से रहित है तथा उसका नाम शुद्धपारिणामिकभाव है - ऐसा जानना चाहिए तथा दशप्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - इन्हें अशुद्धपारिणामिकभाव कहते हैं; क्योंकि ये पर्यायार्थिकनय के आश्रित हैं। प्रश्न - ये तीनों भाव अशुद्ध क्यों हैं ? उत्तर - संसारी जीवों के शुद्धनय से व सिद्ध जीवों के सर्वथा ही दशप्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व का अभाव होता है। इन तीनों में पर्यायार्थिकनय से भव्यत्वलक्षण पारिणमिकभाव के प्रच्छादक व यथासंभव सम्यक्त्वादि जीवगुणों के घातक देशघाति और सर्वघाति नाम के मोहादि कर्मसामान्य होते हैं और जब कालादिलब्धि के वश से भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति अर्थात् प्रगटता होती है; तब यह जीव सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षणवाले निजपरमात्मद्रव्य के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप पर्याय से परिणमित होता है। उसी परिणमन को आगमभाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव और अध्यात्मभाषा में शुद्धात्माभिमुख परिणाम, शुद्धोपयोग आदि नामान्तरों से अभिहित किया जाता है। यह शुद्धोपयोगरूप पर्याय शुद्धपारिणामिकभावलक्षणवाले शुद्धात्मद्रव्य से कथंचित् भिन्न है; क्योंकि वह भावनारूप होती है और शुद्धपारिणामिकभाव भावनारूप नहीं होता। यदि उसे एकान्त से अशुद्धपारिणामिकभाव से अभिन्न मानेंगे तो भावनारूप एवं मोक्षकारणभूत अशुद्धपारिणामिकभाव का मोक्ष-अवस्था में विनाश होने पर शुद्धपारिणामिकभाव के भी विनाश का प्रसंग प्राप्त होगा; परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धपारिणामिकभावविषयक भावना अर्थात् जिस भावना या भाव का विषय शुद्धपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा है, वह भावना औपशमिकादि तीनों भावरूप
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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