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________________ ४३७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कुत एतत् ? - यथात्र लोके दृष्टिदृश्यादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्संधुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिंडवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टत्वात् कर्मणोऽत्यंतविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंधं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ।।३१९-३२०॥ ___ यदि कोई यह कहे कि यह किसप्रकार है तो उससे कहते हैं कि जिसप्रकार इस जगत में दृष्टि (नेत्र) दृश्यपदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह दृश्य पदार्थों को करने और भोगने में भी पूर्णतः असमर्थ है। इसप्रकार वह दृष्टि (नेत्र) दृश्यपदार्थों को न तो करती ही है और न भोगती ही है। ___ यदि ऐसा नहीं मानें तो जिसप्रकार जलानेवाला पुरुष अग्नि को जलाता है और लोहे का गोला अग्नि की उष्णता को भोगता है; उसीप्रकार दृष्टि अर्थात् नेत्र को भी दिखाई देनेवाली अग्नि को जलाना चाहिए और उसकी उष्णता का अनुभव भी करना चाहिए, उसे भोगना भी चाहिए; पर ऐसा नहीं होता; अपितु अग्नि को देखनेवाला नेत्र मात्र उसे देखता ही है, जलाता नहीं और जलन का अनुभव भी नहीं करता। इसीप्रकार ज्ञान भी ज्ञेयपदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह ज्ञेयपदार्थों को करने और भोगने में पूर्णतः असमर्थ है। इसकारण वह ज्ञान ज्ञेयपदार्थों का कर्ता-भोक्ता नहीं है; किन्तु ज्ञेयों को जानने के स्वभाववाला होने से वह ज्ञान ज्ञेयरूप कर्मबंध, कर्मोदय, निर्जरा एवं मोक्ष को मात्र जानता ही है। उनका कर्ता-भोक्ता नहीं है।' आचार्य जयसेन ३१९वीं गाथा की व्याख्या करते समय ज्ञानी के साथ निर्विकल्पसमाधि में स्थित विशेषण का प्रयोग करते हैं और नहीं भोगने का अर्थ तन्मय होकर नहीं भोगना करते हैं तथा वे सर्वत्र नय का प्रयोग तो करते ही हैं। यहाँ भी लिखते हैं कि निश्चयनय से कर्मों को न तो करते हैं और न तन्मय होकर भोगते ही हैं। __ ३२०वीं गाथा की टीका में वे लिखते हैं कि न केवल दृष्टि, अपितु क्षायिकज्ञान भी निश्चयनय से कर्मों का अकारक और अवेदक ही है। अन्त में निष्कर्ष के रूप में लिखते हैं कि सर्वविशुद्धपरम दानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनय से जीव कर्तृत्व-भोक्तृत्व, बंध-मोक्षादि कारणपरिणामों से रहित है। यहाँ यही सूचित किया गया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आत्मख्याति में संधुक्षण शब्द का प्रयोग है, जिसका अर्थ होता है - सुलगना, प्रज्वलित होना। इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि साधक के ज्ञान के साथ क्षायिकज्ञान भी कर्मबंध, कर्मोदय, कर्मों की निर्जरा और मोक्ष का कर्ता-भोक्ता नहीं है; अपितु मात्र उन्हें जानता ही है। यहाँ आकर आचार्य जयसेन लिखते हैं कि 'इसतरह यहाँ मोक्षाधिकार की चूलिका समाप्त हुई अथवा द्वितीय व्याख्यान से मोक्षाधिकार समाप्त हुआ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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