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समयसार
ण विकुव्व ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराई । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।। ३१९ । । दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव । जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।।३२० ।। नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि ।
जानाति पुनः कर्मफलं बंधं पुण्यं च पापं च ।। ३१९ ।। दृष्टिः यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव।
जानाति च बंधमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव ॥ ३२० ॥
ज्ञानि हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि ज्ञानी कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से रहित होने के कारण कर्मों का कर्ता और उनके फल का भोक्ता नहीं है; किन्तु ज्ञानचेतना से सम्पन्न होने के कारण सभी का सहज ज्ञाता - दृष्टा ही है।
जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को इन ३१९ - ३२०वीं गाथाओं में कहते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत )
ज्ञानी करे - भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को ।
वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ।। ३१९ ।।
दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक ।
जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा । । ३२० ।।
अनेकप्रकार के कर्मों को न तो ज्ञानी करता ही है और न भोगता ही है; किन्तु पुण्यपापरूप कर्मबंध को और कर्मफल को मात्र जानता ही है।
जिसप्रकार दृष्टि (नेत्र) दृश्य पदार्थों को देखती ही है, उन्हें करती- भोगती नहीं है; उसीप्रकार ज्ञान भी अकारक व अवेदक है और बंध, मोक्ष, कर्मोदय और निर्जरा को मात्र जानता ही है । तात्पर्य यह है कि नेत्र के समान ज्ञान भी पर का कर्ता-भोक्ता नहीं, मात्र ज्ञाता ही है। उक्त गाथाओं का अर्थ आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट है
किया गया
"ज्ञानी कर्मचेतना से रहित होने से स्वयं अकर्ता और कर्मफलचेतना से रहित होने से स्वयं अभोक्ता है; इसलिए वह न तो कर्मों को करता ही है और न भोगता ही है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होने से शुभ या अशुभ कर्मबंध को और शुभ या अशुभ कर्मफल को मात्र जानता ही है।