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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
४३५ मुंचति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात् । अतो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव।
ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यंतविरक्तत्वात् प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुंचति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते। अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्तत्वादवेदक एव ।।३१७-३१८ ।।
(वसंततिलका) ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् । जानन्परं करणवेदनयोरभावा
च्छुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव ।।१९८।। छुड़ाने में समर्थ द्रव्यश्रुत के ज्ञान से भी प्रकृतिस्वभाव को नहीं छोड़ता है; क्योंकि उसे भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञान के अभाव के कारण सदा ही अज्ञानीपन है। इसकारण यह नियम ही है कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव में स्थिर होने से वेदक ही है, कर्मों को भोगता ही है।
निरस्त हो गये हैं समस्त भेद जिसमें ऐसे अभेद भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञान के सद्भाव के कारण ज्ञानी तो पर से अत्यन्त विरक्त होने से प्रकृति के स्वभाव को स्वयमेव ही छोड़ देता है; इसप्रकार उदयागत अमधुर या मधुर कर्मफल को ज्ञातापने के कारण मात्र जानता ही है; किन्तु ज्ञान के होने पर भी परद्रव्य को अपनेपन से अनुभव करने की अयोग्यता होने से उस कर्मफल को वेदता नहीं है, भोगता नहीं है।
इसलिए ज्ञानी प्रकृतिस्वभाव से विरक्त होने से अवेदक ही है, अभोक्ता ही है।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जिसप्रकार सर्प न तो स्वयं ही विष को छोड़ता है और न मीठा दूध पिलाने पर ही छोड़ता है; उसीप्रकार अज्ञानी न तो स्वयं मिथ्यात्व रागादिरूप कर्मप्रकृति के स्वभाव को छोड़ता है और न शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरान्त ही छोड़ता है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीवों को शास्त्राध्ययन से भी कोई विशेषलाभ नहीं होता; क्योंकि उनके भावश्रुतज्ञान का अभाव है। इसकारण वे कर्मफल के भोक्ता हैं; किन्तु आत्मानुभवरूप भावश्रुतज्ञान के सद्भाव के कारण ज्ञानीजन कर्मफल के मात्र ज्ञाता ही हैं, कर्ता-भोक्ता नहीं। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सोरठा) निश्चल शद्धस्वभाव, ज्ञानी करे न भोगवे।
जाने कर्मस्वभाव, इस कारण वह मुक्त है ।।१९८ ।। ज्ञानीजीव कर्म को न तो करता ही है और न भोगता ही है। इसप्रकार करने और भोगने के अभाव के कारण तथा मात्र जानने के कारण शुद्धस्वभाव में निश्चल रहता हुआ वह ज्ञानी वस्तुत: मुक्त ही है।