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अज्ञानी वेदक एवं ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यते
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यदि पडिमभव्वो सुठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि ।
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ।।३१७।। णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियादि । महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ । । ३१८ । । न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्वपि अधीत्य शास्त्राणि ।
गुडदुग्धमपि पिबंतो न पन्नगा निर्विषा भवंति ।।३१७।। निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति ।
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति । । ३१८ । ।
यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुंचति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न मुंचति; तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुंचति, प्रकृतिस्वभावमोचनसमर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न
समयसार
प्रकृति के स्वभाव में लीन होने से अज्ञानी सदा वेदक है और प्रकृति के स्वभाव से विरक्त होने से ज्ञानी कदापि वेदक नहीं है । हे निपुणपुरुषो ! इस नियम का विचार करके अज्ञानीपन छोड़ दो और एक शुद्धतेजमय आत्मा में निश्चल होकर ज्ञानीपने का सेवन करो ।
इसप्रकार इस कलश में पर के भोगने के भावरूप अज्ञानीपन को छोड़ने और सहज ज्ञाता-दृष्टा भावरूप ज्ञानीपन को अपनाने की प्रेरणा दी गई है।
अब आगामी गाथाओं में यह सुनिश्चित करते हैं कि अज्ञानी विषय-भोगों का भोक्ता है और ज्ञानी भोक्ता नहीं है, अभोक्ता ही है।
गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत )
गुड़- दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों ।
त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे । । ३१७ ।।
निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध ।
वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए । । ३१८ । ।
जिसप्रकार गुड़ से मिश्रित मीठे दूध को पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते; उसीप्रकार शास्त्रों का भलीभाँति अध्ययन करके भी अभव्य जीव प्रकृतिस्वभाव नहीं छोड़ता ।
किन्तु अनेकप्रकार के मीठे-कड़वे कर्मफलों को जानने के कारण निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त ज्ञानी उनका अवेदक ही है।
इन गाथाओं का अर्थ आत्मख्याति में इसप्रकार किया गया है
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“जिसप्रकार इस जगत में सर्प स्वयं तो विषभाव को छोड़ता ही नहीं है; किन्तु विषभावों को मिटाने में समर्थ मिश्री से मिश्रित दुग्ध के पीने-पिलाने पर भी विषभाव को नहीं छोड़ता है; उसीप्रकार अभव्यजीव भी स्वयं तो प्रकृतिस्वभाव को छोड़ता ही नहीं है; किन्तु प्रकृति को