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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि । णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि । । ३१६ ।। अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते ।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ।।३१६।।
अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते ।
ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते ।। ३१६।।
( शार्दूलविक्रीडित ) अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको । ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता । । १९७।। ( हरिगीत ) प्रकृतिस्वभावस्थित अज्ञजन ही नित्य भोगें कर्मफल ।
पर नहीं भोगें विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल । । ३१६ ।।
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अज्ञानी प्रकृति के स्वभाव में स्थित रहता हुआ कर्मफल को वेदता है, भोगता है और ज्ञानी तो उदय में आये हुए कर्मफल को मात्र जानता है, भोगता नहीं ।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
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"शुद्धात्मा के ज्ञान के अभाव के कारण अज्ञानी स्व-पर के एकत्व के ज्ञान से, स्व-पर के एकत्व के दर्शन से और स्व-पर की एकत्व परिणति से प्रकृति के स्वभाव में स्थित होने से प्रकृति के स्वभाव को भी अहंरूप से अनुभव करता हुआ कर्मफल को भोगता है और ज्ञानी शुद्धात्मा के ज्ञान के सद्भाव के कारण स्व-पर के विभाग के ज्ञान से, स्व-पर के विभाग के दर्शन से और स्व-पर की विभाग की परिणति से प्रकृति के स्वभाव से निवृत्त होने से शुद्धात्मा के स्वभाव को ही अहंरूप से अनुभव करता हुआ उदित कर्मफल को उसकी ज्ञेयमात्रता के कारण मात्र जानता ही है, अहंरूप से अनुभव में आना अशक्य होने से उसे भोगता नहीं ।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि अज्ञानी कर्मफल का भोक्ता बनता है; किन्तु ज्ञानी कर्मफल का भोक्ता कदापि नहीं है । इसी भाव की पुष्टि निम्नांकित कलश में भी की गई है रोला)
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प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी सदा भोगते ।
प्रकृतिस्वभाव से विरत ज्ञानिजन कभी न भोगें ।। निपुणजनो ! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को ।
अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को । । १९७ ।।