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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार अथ प्रविशति सर्वविशुद्धज्ञानम् ।
(मन्दाक्रान्ता) नीत्वा सम्यक्प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बंधमोक्षप्रक्लृप्तेः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चिष्टंकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुंजः ।।१९३।।
मंगलाचरण
(दोहा) उक्त भाव हैं स्वांग सब, सर्वविशुद्धस्वभाव।
स्वांग नहीं वह मूलतः, आतम वस्तुस्वभाव ।। अबतक जीवाजीवाधिकार से संवराधिकार तक भगवान आत्मा को परपदार्थों और विकारीभावों से भिन्न बताकर अनेकप्रकार से भेदविज्ञान कराया गया है तथा निर्जराधिकार में भेदविज्ञान सम्पन्न आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टियों के भूमिकानुसार भोग और संयोगों का योग होने पर भी बंध नहीं होता, अपितु निर्जरा होती है - यह स्पष्ट किया गया है। बंधाधिकार में बंध के कारणों पर एवं मोक्षाधिकार में मुक्ति के उपाय पर प्रकाश डाला गया है।
अब इस सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार में भगवान आत्मा के अकर्ता-अभोक्ता सर्वविशुद्धज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट किया जा रहा है।
अन्य अधिकारों के समान इस अधिकार का आरंभ भी आत्मख्याति टीका में “अब सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है" - इस वाक्य से ही होता है। तात्पर्य यह है कि रंगभूमि में जीवअजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष - ये आठ स्वांग आये और अपना नृत्य दिखाकर, अपना स्वरूप बताकर चले गये । इसप्रकार सर्व स्वांगों के चले जाने पर अब एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है।
उक्त आठ तो स्वांग थे, पर यह सर्वविशुद्धज्ञान स्वांग नहीं है, आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। ___ आत्मख्याति में सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में ज्ञानपुंज आत्मा का स्मरण करते हैं। मंगलाचरण के छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) जिसने कर्तृ-भोक्तृभाव सब नष्ट कर दिये,
__बंध-मोक्ष की रचना से जो सदा दूर है। है अपार महिमा जिसकी टंकोत्कीर्ण जो;
ज्ञानपुंज वह शुद्धातम शोभायमान है।।१९३।।