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________________ ४२४ समयसार अरे दूर से त्याग स्वयं में लीन रहे जो। अपराधों से दूर बंध का नाश करें वे, शुद्धभाव को प्राप्त मुक्त हो जाते हैं वे ।।१९१।। (मन्दाक्रान्ता) बंधच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकांतशुद्धम् । एकाकार-स्व-रस-भरतो-ऽत्यंत-गंभीर-धीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।१९शा इति मोक्षो निष्क्रांतः। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायात्माख्यातौ मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः। वस्तुतः जो पुरुष अशुद्धता करनेवाले समस्त परद्रव्यों को छोड़कर स्वयं में रति करता है, स्वयं में लीन होता है; वह पुरुष नियम से सर्व अपराधों से रहित होता हुआ बंध के नाश को प्राप्त होकर उदित अपनी ज्योति से निर्मल तथा उछलता हुआ चैतन्यरूपी अमृत के प्रवाह द्वारा पूर्णता को प्राप्त महिमावाला शुद्ध होता हुआ कर्मों से मुक्त होता है। ___ इसप्रकार इस कलश में मुक्ति के मार्ग पर संक्षेप में सम्पूर्णत: प्रकाश डाल दिया है; मोक्षाधिकार का संक्षिप्त सार बता दिया है। इसमें कहा गया है कि समस्त परद्रव्यों को त्याग कर स्व में लीन होनेवाले सम्यग्दृष्टि मुनिराज सर्व अपराधों से रहित होते हुए पूर्णज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त कर संसार से मुक्त हो जाते हैं। अब मोक्षाधिकार के अन्त में अन्तमंगलरूप कलश कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) बंध-छेद से मुक्त हआ यह शुद्ध आतमा, निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय । उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय, अचल अनाकुल अज अखण्ड यह ज्ञानदिवाकर ॥१९२।। नित्य-उद्योतवाली सहज अवस्था से स्फुरायमान, सम्पूर्णत: शुद्ध और एकाकार निजरस की अतिशयता से अत्यन्त धीर-गंभीर पूर्णज्ञान कर्मबंध के छेद से अतुल अक्षय मोक्ष का अनुभव करता हुआ सहज ही प्रकाशित हो उठा और स्वयं की अचल महिमा में लीन हो गया। इसप्रकार इस कलश में अन्तमंगल के रूप सम्यग्ज्ञानज्योति को स्मरण किया गया है कि जो स्वयं में समाकर, त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा का आश्रय कर केवलज्ञानरूप परिणमित हो गई है। ज्ञानज्योति का केवलज्ञानरूप परिणमित हो जाना ही मोक्ष है। इसप्रकार यह मोक्षाधिकार समाप्त होता है। आत्मख्याति के मोक्षाधिकार का अन्तिम वाक्य यह है कि इसप्रकार मोक्ष भी रंगभूमि से निकल गया। मोक्ष भी तो एक स्वांग है, आत्मवस्तु का मूल स्वरूप नहीं है। मोक्ष भी एक पर्याय का नाम है, वह भी आत्मा का द्रव्यस्वभाव नहीं है; अत: यहाँ उसे भी स्वांग कहा है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में मोक्ष का प्ररूपक आठवाँ अंक समाप्त हुआ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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