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मोक्षाधिकार
पश्चात्ताप नहीं करने रूप जो वृत्ति है; वह तो महा जहर है और सर्वथा त्याज्य है।
प्रमादवश होनेवाले अपराधों के प्रति पश्चात्ताप के भाव होने रूप जो प्रतिक्रमणादि हैं; वे पाप की अपेक्षा व्यवहार से अमृतकुंभ हैं, कथंचित् करने योग्य हैं।
( पृथ्वी ) प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः । अत: स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनि: परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात् ।। १९०।। ( शार्दूलविक्रीडित )
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युत: । बंधध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलच्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते । । १९१ ।।
शुभाशुभभाव से रहित शुद्धोपयोग जो निश्चयप्रतिक्रमण या अप्रतिक्रमणादि हैं, वे साक्षात् अमृतकुंभ हैं, सर्वथा ग्रहण करने योग्य हैं; मुक्ति के साक्षात् कारण हैं।
अब इसी भाव का पोषण आगामी कलश में भी करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला )
कषायभाव से आलस करना ही प्रमाद है,
यह प्रमाद का भाव शुद्ध कैसे हो सकता ? निजरस से परिपूर्ण भाव में अचल रहें जो,
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अल्पकाल में वे मुनिवर ही बंधमुक्त हों । । १९० ।।
कषायों के भार से भारी होने से आलस का होना प्रमाद है। यह प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभावरूप अप्रतिक्रमण अथवा निश्चयप्रतिक्रमण कैसे हो सकता है ? इसलिए निजरस से परिपूर्ण स्वभाव में निश्चल होनेवाले मुनिजन परम शुद्धता को प्राप्त होते हैं अथवा अल्पकाल में ही 'मुक्त 'हो जाते हैं।
इस कलश का अर्थ करते हुए पाण्डे राजमलजी कलशटीका में अलसः का अर्थ अनुभव में शिथिल और प्रमादकलितः का अर्थ नानाप्रकार के विकल्पों से संयुक्त करते हैं तथा मुनि का अर्थ सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं ।
अब मोक्षाधिकार की समाप्ति पर दो कलश कहते हैं; जिसमें पहले कलश में मोक्ष होने का अनुक्रम बताते हुए दूसरे कलश में धीर-वीर ज्ञानज्योति का स्मरण करते हुए अन्तमंगल करते हैं। मोक्ष होने का अनुक्रम बतानेवाले प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( रोला ) करनेवाले परद्रव्यों को,
अरे अशुद्धता