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समयसार और चंचल क्रियाकाण्डियों - दोनों को ही मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती - यह स्पष्ट कर दिया है, सभी आलंबनों को उन्मूलित कर दिया है, उखाड़ फेंका है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यप्रतिक्रमणादि को निश्चय से बंध का कारण बताकर उनका निषेध कर दिया है।
(वसन्ततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध:
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ।।१८९।। आचार्यदेव कहते हैं कि जबतक सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्मा की प्राप्ति न हो, तबतक हमने चित्त को आत्मारूपी स्तंभ से ही बाँध रखा है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का आशय यह है कि आत्मार्थी को न तो समस्त क्रियाकाण्ड छोड़कर प्रमादी ही हो जाना चाहिए और न क्रियाकाण्ड में ही उलझकर रह जाना चाहिए। यदि अपराध हुआ है तो प्रतिक्रमणादि क्रिया व तत्सम्बन्धी शुभभाव को अमृतकुम्भ जानकर उस अपराध का परिमार्जन करना चाहिए; किन्तु शुभक्रियाओं और शुभविकल्पों में ही उलझे रहकर इस बहुमूल्य मानव जीवन को यों ही नहीं गँवा देना चाहिए।
भूमिकानुसार यथायोग्य प्रतिक्रमणादि होंगे ही, तो भी उनमें उपादेयबुद्धि नहीं होना चाहिए; क्योंकि उपादेय तो एकमात्र वह शुद्धोपयोगरूप अप्रतिक्रमण ही है, जिसे निश्चयप्रतिक्रमण भी कहते हैं।
विगत गाथाओं में प्रतिक्रमणादि को विषकुम्भ और अप्रतिक्रमणादि को अमृतकुम्भ कहा है। उक्त कथन का मर्म न समझ पाने के कारण कोई व्यक्ति प्रतिक्रमणादि को छोडकर प्रमादी न हो जाये - इस भावना से आगामी कलश में सावधान करते हए आचार्य अमृतचन्द्र एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को।। अरे प्रमादी लोग अधोऽधः क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते? ||१८९।। जहाँ प्रतिक्रमण को भी विष कहा हो; वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से हो सकता है, कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि प्रमाददशारूप अप्रतिक्रमण अमृत नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी स्थिति होने पर भी लोग नीचे-नीचे ही गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं; निष्प्रमादी होकर ऊपर-ऊपर ही क्यों नहीं चढ़ते ?
उक्त कथन का सार यह है कि अशुभभावरूप जो अप्रतिक्रमण है, पाप प्रवृत्ति करके भी