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________________ ४२६ समयसार (अनुष्टुभ् ) कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकाः ।।१९४।। कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि समस्त विकारीभावों का भली-भाँति प्रलय (अभाव) करके, पदपद पर बंध-मोक्ष की रचना से दूर रहता हुआ, टंकोत्कीर्ण प्रगट महिमावाला यह परमशुद्ध ज्ञानपुंज आत्मा निजरस के विस्तार से परिपूर्ण पवित्र अचल तेज से स्फुरायमान हो रहा है। इसके पूर्व के अधिकारों में मंगलाचरण के रूप में जिस ज्ञानज्योति को स्मरण किया जाता रहा है, उसे केवलज्ञानज्योति या सम्यग्ज्ञानज्योति के रूप में देखा जाता रहा है; किन्तु सर्वविशुद्धज्ञान का अधिकार होने से यहाँ उस ज्ञानज्योति के स्थान पर बंध-मोक्ष से रहित ज्ञानपुंज आत्मा को स्मरण किया गया है। इसप्रकार इस कलश में परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को स्मरण करते हुए उसके प्रति रुचि प्रदर्शित की गई है, बहुमान प्रगट किया गया है। अब आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) जैसे भोक्तृ स्वभाव नहीं, वैसे कर्तृ स्वभाव। कर्तापन अज्ञान से, ज्ञान अकारकभाव ।।१९४।। जिसप्रकार पर को या रागादि को भोगना आत्मा का स्वभाव नहीं है; उसीप्रकार पर को या रागादि को करना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञानभाव के कारण ही आत्मा कर्ता बनता है, अज्ञान के अभाव में वह अकारक ही है। इसप्रकार इस कलश में यही कहा जा रहा है कि यह भगवान आत्मा स्वभाव से तो पर का या रागादि का कर्ता-भोक्ता है ही नहीं; परन्तु अपने अज्ञान के कारण उनका कर्ता-भोक्ता बनता है अर्थात् उनका कर्ता-भोक्ता स्वयं को मानता है; अज्ञान के चले जाने पर उसका यह मानना भी समाप्त हो जाता है। _आचार्य जयसेन के चित्त में मोक्षाधिकार और सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार के विभागीकरण के संबंध में कुछ विकल्प था । यद्यपि वे आत्मख्याति के समान ३०७ गाथा पर ही मोक्षाधिकार को समाप्त मान लेते हैं और 'मोक्षो निष्क्रान्तः। अथ प्रविशति सर्वविशुद्धज्ञानम्' भी लिख देते हैं; तथापि ३२० तक की गाथाओं को वे मोक्षाधिकार की चूलिका कहते हैं तथा ३२०वीं गाथा के उपरान्त लिखते हैं - मोक्षाधिकारसंबंधिनी...चूलिका समाप्ता। अथवा द्वितीयव्याख्येनात्र मोक्षाधिकारः समाप्तः। इसप्रकार वे मोक्षाधिकार को यहाँ समाप्त मानते हैं। उनकी यह विशेषता है कि वे आचार्य अमृतचन्द्र के मत को स्वीकार करते हुए भी अपने वैकल्पिक मत को सविनय स्पष्ट कर देते हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि आगामी ३०८ से ३२० तक की गाथायें मोक्षाधिकार की चूलिकारूप सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार की आरंभिक गाथायें हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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