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समयसार
४१० ही है।
(इन्द्रवज्रा) एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम् । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावा: परे सर्वत एव हेयाः ।।१८४।।
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।।३००।।
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् ।
ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम् ।।३००।। इसप्रकार यह अद्वैत चेतना ही दर्शन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार की है। इसी बात को इस कलश में सयुक्ति सिद्ध किया गया है। कहा गया है कि यह अद्वैत चेतना यदि देखने और जाननेरूप दोपने को छोड़ दे तो सामान्य और विशेष के अभाव हो जाने से वह चेतना अपने अस्तित्व को ही छोड़ देगी। जब चेतना का ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो फिर चेतना के अभाव में चेतनद्रव्य जड़ हो जायेगा। जड़ ही नहीं, अपितु उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा क्योंकि चेतना के बिना चेतन कैसा? इसलिए भला इसी में है कि हम चेतना को दर्शनज्ञानरूप ही स्वीकार करें। अब आगामी गाथा की सूचनिकारूप कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(दोहा) चिन्मय चेतनभाव हैं, पर हैं पर के भाव।
उपादेय चिद्भाव हैं, हेय सभी परभाव ।।१८४।। चेतन आत्मा का तो एक चिन्मयभाव ही है। अन्य जो भाव हैं, वे आत्मा के नहीं हैं, वे अन्य के ही भाव हैं। इसलिए एक चिन्मयभाव ग्रहण करने योग्य है, शेष सभी भाव पूर्णतः हेय हैं।
इस सरल-सुबोध कलश में एक ही बात कही गई है कि आत्मा तो चैतन्यमात्र ही है; और जो भाव हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं, वे आत्मा नहीं हैं; इसलिए आत्मकल्याण के लिए चैतन्यलक्षण से लक्षित आत्मा ही उपादेय है, शेष सभी भाव हेय हैं। यही बात आगामी गाथा में कही गई है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता।
है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ।।३००।। अपने शुद्ध आत्मा को जाननेवाला और सर्व परभावों को पर जाननेवाला कौन ज्ञानी ऐसा होगा कि जो यह कहेगा कि ये परपदार्थ मेरे हैं ? तात्पर्य यह है कि कोई भी समझदार व्यक्ति