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मोक्षाधिकार
४११ यह नहीं कहता कि परपदार्थ मेरे हैं तो फिर आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसी बात कैसे कह सकता है ? ___ यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मानं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोनिश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासंभवात् । अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावा:प्रहातव्या इति सिद्धांतः ।।३००।।
(शार्दूलविक्रीडित ) सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योति: सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समल्लसंति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्य समग्रा अपि ।।१८५।। आत्मख्याति में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जो पुरुष पर के और आत्मा के नियत स्वलक्षणों के विभाग में पड़नेवाली प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी हुआ है; वह वास्तव में एक चिन्मात्रभाव को अपना जानता है और शेष सभी भावों को दूसरों के जानता है। ऐसा जानता वह पुरुष परभावों को ये मेरे हैं' - ऐसा क्यों कहेगा; क्योंकि पर में और अपने में निश्चय से स्व-स्वामीसंबंध संभव नहीं है। इसलिए सर्वथा चिद्भाव ही ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं - ऐसा सिद्धान्त है।"
अब इसी बात को दृढ़ता प्रदान करते हुए आगामी कलश लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ। सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ।। जो विविध परभाव मुझमें दिखें वे मुझ से पृथक् ।
वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ।।१८५।। जिनका चित्त और चरित्र उदार हैं - ऐसे मोक्षार्थी के द्वारा इस सिद्धान्त का सेवन किया जाना चाहिए कि मैं तो सदा एक शुद्ध चैतन्यमय परमज्योति हूँ और मुझसे पृथक् लक्षणवाले विविधप्रकार के जो भाव प्रगट होते हैं; वे मैं नहीं हूँ; क्योंकि वे सभी मेरे लिए परद्रव्य हैं।
उक्त कलश में एक ही बात कही गई है कि जो मोक्षार्थी हैं, मुमुक्षु हैं, जिन्हें दुःखों से मुक्त होने की आकांक्षा है; उन्हें इस महान सिद्धान्त पर अपनी श्रद्धा दृढ़ करना चाहिए और इसी के अनुसार आचरण भी करना चाहिए। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि मोह-राग-द्वेष भावों से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी