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________________ मोक्षाधिकार ४०९ २९७वीं गाथा में चिद्स्वभाव की बात कही गई थी और इन २९८-२९९वीं गाथा में दर्शनस्वभाव (शार्दूलविक्रीडित ) अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागेजडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्तु चित् ।।१८३शा और ज्ञानस्वभाव की बात कही गई है। देखना-जानना चेतना के ही विशेष हैं। अत: २९७वीं गाथा में सामान्य कथन था और २९८-२९९वीं गाथा में विशेष कथन है। इसप्रकार इन तीन गाथाओं में यही कहा गया है कि जो जानने-देखनेवाला चेतनतत्त्व है; वही मैं हूँ, शेष सभी भाव मेरे से भिन्न परपदार्थ हैं। इसप्रकार जानकर प्रज्ञाछैनी से जानने-देखनेवाले आत्मा को ग्रहण करना चाहिए। अब इसी अर्थ का पोषक कलशरूप काव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) है यद्यपि अद्वैत ही यह चेतना इस जगत में। किन्तु फिर भी ज्ञान-दर्शन भेद से दो रूप है।। यह चेतना दर्शन सदा सामान्य अवलोकन करे। पर ज्ञान जाने सब विशेषों को तदपि निज में रहे ।। अस्तित्व ही ना रहे इनके बिना चेतन द्रव्य का। चेतना के बिना चेतन द्रव्य का अस्तित्व क्या ? चेतन नहीं बिन चेतना चेतन बिना ना चेतना। बस इसलिए हे आत्मन् ! इनमें सदा ही चेत ना ।।१८३।। यद्यपि जगत में निश्चय से चेतना अद्वैत ही है; तथापि यदि वह अपने दर्शन-ज्ञानरूप को छोड़ दे तो सामान्य-विशेषरूप के विरह (अभाव) से वह चेतना अपने अस्तित्व को ही छोड़ देगी। तात्पर्य यह है कि ज्ञान-दर्शन के अभाव में चेतना का अस्तित्व ही न रहेगा। इसप्रकार चेतना के अपने अस्तित्व को छोड़ देने पर चेतन आत्मा जड़ हो जायेगा और व्यापक चेतना के बिना व्याप्य आत्मा नष्ट हो जायेगा। इसलिए इसी में भला है कि चेतना नियम से दर्शन-ज्ञानरूप ही हो। यद्यपि दर्शनज्ञानरूप चेतना एक ही है; तथापि देखनेरूप दर्शन और जाननेरूप ज्ञान - इसप्रकार देखने और जानने के रूप में चेतना दो प्रकार से परिलक्षित होती है। ___सामान्य अवलोकन को दर्शन कहते हैं और विशेष जानने को ज्ञान कहते हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। सामान्यविशेषात्मक ज्ञेयवस्तु को विषय बनानेवाली चेतना को भी सामान्यग्राही दर्शन और विशेषग्राही ज्ञान के रूप में दो प्रकार का होना स्वाभाविक
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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