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________________ समयसार ४०६ ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ। यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये। __ अथवा - न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमाना -च्चेतये, नचेतयमानेचेतये, नचेतयमानंचेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रोभावोऽस्मि ॥२९५२९७॥ __ (शार्दूलविक्रीडित ) भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्भत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्रांकितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् । भिद्यन्ते यदि कास्काणि यदि वा धर्मा मुमा वा यदि भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ।।१८२।। आत्मा की चेतन ही एक क्रिया है; इसलिए मैं ग्रहण करता हूँ अर्थात् मैं चेतता ही हूँ, चेतता हआ ही चेतता हूँ, चेतते हए द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हए के लिए ही चेतता हूँ, चेतते हए से ही चेतता हूँ, चेतते हुए में ही चेतता हूँ और चेतते हुए को ही चेतता हूँ। अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुए के लिए चेतता हूँ, न चेतते हुए चेतता हूँ, न चेतते हुए में चेतता हूँ और न चेतते हुए को चेतता हूँ, किन्तु मैं सर्वविशुद्धचिन्मात्रभाव हूँ।" इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि आत्मा और बंध को उनके स्वलक्षणों से पहिचान कर बंध को छोड़कर आत्मा को ग्रहण करना चाहिए। आत्मा को बंध से भिन्न जानने और ग्रहण करने का सम्पूर्ण कार्य अपनी स्वयं की बुद्धि-विवेक से ही होता है; इसमें अन्य किसी पर के सहयोग या किसी क्रियाकाण्ड की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। इसप्रकार ये गाथायें आत्मा की पूर्ण स्वाधीनता घोषित करनेवाली गाथायें हैं। अब इन भावों का पोषक कलशकाव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) स्वलक्षणों के प्रबलबल से भेदकर परभाव को। चिद्लक्षणों से ग्रहण कर चैतन्यमय निजभाव को।। यदि भेद को भी प्राप्त हो गुण धर्म कारक आदि से। तो भले हो पर मैं तो केवल शुद्ध चिन्मयमात्र हूँ।।१८२ ।। जो कुछ भी भेदा जा सकता है; उस सबको स्वलक्षण के बल से भेदकर, जिसकी महिमा निर्विभाग है और जो चैतन्यमुद्रा से अंकित है - ऐसा शुद्धचैतन्य मैं ही हैं। यदि कारकों के, धर्मों या गुणों के भेद पड़ते हों तो भले ही पड़ें; किन्तु समस्त विभावों से रहित शुद्ध सर्वप्रभुतासम्पन्न चैतन्यस्वभावी विभु आत्मा में तो कोई भी भेद नहीं हैं। यहाँ कारकों में कर्ता-कर्मादि षट्कारक, धर्मों में नित्यत्व-अनित्यत्वादि धर्मयुगल और गुणों में
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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