________________
मोक्षाधिकार
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। २९७ ।। जीवो बंधश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम् । बन्धश्छेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः । । २९५ ।। कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा । यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्य: ।। २९६ ।। प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावा: मम परा इति ज्ञातव्याः ।। २९७ ।।
४०५
आत्मबंधौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षण: समस्त एव बंधो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः । एतदेव किलात्मबंधयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्वंधत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।
नुन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वयमात्मानं गृह्णतो, विभजत एव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत् - यो हि नियतस्वलक्षणावलंबिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अविशष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायांतोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि ।
इसप्रकार जीव और बंध अपने निश्चित स्वलक्षणों द्वारा छेदे जाते हैं। ऐसा करके बंध को छोड़ देना चाहिए और आत्मा को ग्रहण करना चाहिए ।
वह आत्मा कैसे ग्रहण किया जाये ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि उसे प्रज्ञा से ही ग्रहण किया जाता है। जिसप्रकार प्रज्ञा से भिन्न किया; उसीप्रकार प्रज्ञा से ग्रहण करना चाहिए ।
प्रज्ञा के द्वारा इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो चेतनेवाला है, वह निश्चय से मैं ही हूँ । शेष सभी भाव मेरे से भिन्न ही हैं।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
-
"प्रथम तो आत्मा और बंध को उनके नियत स्वलक्षणों के विज्ञान से सर्वथा ही छेद देना चाहिए, भिन्न-भिन्न कर देना चाहिए और उसके बाद रागादि लक्षणवाले समस्त बंध को छोड़ देना चाहिए तथा उपयोग लक्षणवाले शुद्धात्मा को ग्रहण कर लेना चाहिए; क्योंकि बंध के त्याग से शुद्धात्मा का ग्रहण ही बंध और आत्मा के द्विधाकरण का मूल प्रयोजन है। • यह शुद्धात्मा किसके द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए ?
प्रश्न
-
उत्तर - प्रज्ञा के द्वारा ही शुद्धात्मा को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार बंध से भिन्न करने में एकमात्र प्रज्ञा ही करण थी; उसीप्रकार ग्रहण करने में भी एकमात्र प्रज्ञा ही करण है 1 इसलिए जिसप्रकार प्रज्ञा से विभक्त किया; उसीप्रकार प्रज्ञा से ही ग्रहण करना चाहिए ।
प्रश्न - इस आत्मा को प्रज्ञा के द्वारा किसप्रकार ग्रहण करना चाहिए ?
उत्तर - नियत स्वलक्षण का अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया चेतक मैं हूँ और अन्य लक्षणों से लक्ष्य व्यवहाररूप भाव चेतकरूपी व्यापक के व्याप्य नहीं होने से मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं । इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही, अपने में