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अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( स्रग्धरा )
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः सूक्ष्मेऽन्तःसंधिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य । आत्मानं मग्नमंत:स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ । । १८१ । । आत्मबन्धौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यमिति चेत् -
वो बंध यता छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । बंधो छेददव्वो सुद्धा अप्पा य घेत्तव्वो ।। २९५ ।। कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा | जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।। २९६ ।। पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। २९७ । ( हरिगीत )
सूक्ष्म अन्त: संधि में अति तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनि को ।
अति निपुणता से डालकर अति निपुणजन ने बंध को ॥ अति भिन्न करके आतमा से आतमा में जम गये ।
वे ही विवेकी धन्य हैं जो भवजलधि से तर गये ।। १८१ ।।
समयसार
अपने आत्मा को अपने अंतरंग तेज में स्थिर करती हुई तथा निर्मल और देदीप्यमान चैतन्यप्रवाह करती हुई एवं बंध को अज्ञानभाव में डालती हुई - इसप्रकार आत्मा और बंध को भिन्न करती हुई, यह प्रज्ञाछैनी प्रवीण पुरुषों द्वारा किसी भी प्रकार प्रयत्नपूर्वक सावधानी से डालने पर आत्मा और कर्मबंध के बीच की सूक्ष्म अन्तःसन्धि में अतिशीघ्रता से पड़ती है।
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तात्पर्य यह है कि यह प्रज्ञाछैनी आत्मा और बंध को छेद देती है, भिन्न-भिन्न कर देती है और उपयोग के अन्तर्मुख होने से आत्मा का अनुभव हो जाता है । अत: प्रज्ञाछैनी ही एकमात्र कारण है विगत गाथा में कहा गया था कि प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वलक्षणों के माध्यम से बंध और आत्मा को छेद देना चाहिए। अब इन आगामी गाथाओं में यह बता रहे हैं कि ऐसा करने के उपरान्त क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों ।
बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आतमा ।। २९५ ।। जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे ।
उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। २९६ ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो चेतता ।