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मोक्षाधिकार केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत् -
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ।।२९४।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्यते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्। प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नो ।।२९४।।
__ "जो कोई ऐसा मानते हैं कि 'शास्त्र के पठन-पाठन, कर्मबंधन के उदय, बंध, उदीरणा आदि और प्रकृतिबंध, स्थितिबंध आदि प्रकार की चिंता-चर्चा-मनन-चिंतन-चिंतवन आदि करके और बहिरंग क्रिया करने से सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ और मोक्षमार्ग शुरू हुआ' उनके प्रति सम्बोधन करते हुए श्री आचार्यदेव कहते हैं कि बंध का चिंतन करने से शुभोपयोग होता है। वह चितवन बाह्यद्रव्य का आलम्बन लेकर होता है, उससे विकल्प ही होते हैं; वह निर्विकल्प (स्वानुभूति-शुद्धोपयोग) नहीं है, इसलिए मोक्षमार्ग शुरू नहीं होता है। इस बंधन के विकल्प करते रहने से सम्यग्दर्शन-स्वानुभव प्राप्त नहीं होता है। यानि स्वानुभव प्रगट कर लेने से ही चतुर्थादि गुणस्थान प्रगट होते हैं। स्वानुभव से ही मोक्ष प्राप्त होता है। स्वानुभव के समय अपने स्वभाव शुद्ध, परिपूर्ण, स्वतंत्र, चिदानन्दमय आत्मा का आलम्बन होने से वहाँ शुभाशुभभाव नहीं हैं; इसलिए कर्मबंध की संवरपूर्वक निर्जरा होती है - कर्मबंध छूटते हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि कर्मबंध प्रक्रिया के ज्ञान और चिन्तन-मनन से कर्मबंध का अभाव नहीं होता; क्योंकि यह सब शुभभावरूप हैं और शुभभावों से पुण्यबंध होता है, बंध का अभाव नहीं होता, संवर-निर्जरा नहीं होते, मोक्ष नहीं होता। ___ विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि बंध से मुक्ति का उपाय आत्मा और बंध के बीच द्विधाकरण ही है। अत: अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि उक्त द्विधाकरण का साधन क्या है ? आत्मा और बंध के बीच यह द्विधाकरण किस साधन से किया जाये ? क्या दया, दान, व्रत-शील-संयम, तप-त्याग, पूजा-पाठ आदि क्रियायें और तत्संबंधी शुभभावों से यह काम हो जायेगा?
उक्त प्रश्न के उत्तर में ही इस २९४वीं गाथा का जन्म हुआ है। यही कारण है कि इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यदि कोई यह कहे कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण किस साधन से होता तो उसका उत्तर इसप्रकार है -
(हरिगीत) जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों।
दोनों पृथक् हो जायें प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ।।२९४।। जीव तथा बंध नियत स्वलक्षणों से छेदे जाते हैं। प्रज्ञारूपी छैनी से छेदे जाने पर वे नानात्व (भिन्नपने) को प्राप्त होते हैं।