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समयसार
बंधचिंताप्रबन्धो मोक्षहेतुरित्यन्ये, तदप्यसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धचिंताप्रबन्धो मोक्षहेतु:, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धचिंताप्रबन्धवत् । एतेन कर्मबन्धविषयचिंताप्रबन्धात्मकविशुद्धधर्मध्यानांधबुद्धयो बोध्यंते ।
कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत् - कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतु:, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धच्छेदवत् । एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे व्यापार्येते ।
किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत् - य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय, बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् । एतेनात्मबन्धयोर्द्विधाकरणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते । । २९१-२९३ ।।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
“ अन्य अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि बंधसंबंधी विचारशृंखला ही मोक्ष का कारण है; किन्तु यह भी ठीक नहीं है। कर्म से बँधे हुए जीवों को बंधसंबंधी विचारशृंखला भी मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को उक्त बंधन संबंधी विचारशृंखला बंध से छूटने का कारण ( उपाय) नहीं है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए पुरुष को कर्मबंधसंबंधी विचारशृंखला कर्मबंध से मुक्ति का कारण ( उपाय) नहीं है ।
इस कथन से कर्मसंबंधी विचारशृंखलारूप विशुद्ध (शुभ) भावरूप धर्मध्यान से जिनकी बुद्धि अंध है; उन्हें समझाया है।
यदि बंधसंबंधी विचारशृंखला भी मोक्ष का हेतु नहीं है तो फिर मोक्ष का हेतु क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि कर्म से बँधे हुए जीव को बंध का छेद ही मोक्ष का कारण है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को बंधन का छेद ही बंधन से छूटने का उपाय है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए जीव को कर्मबंधन का छेद ही कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
इस कथन से पूर्वकथित बंध के स्वरूप के ज्ञानमात्र से ही संतुष्ट और बंध का विचार करनेवाले - इन दोनों को आत्मा और बंध के द्विधाकरण के व्यापार में लगाया जाता है ।
मात्र यही मोक्ष का कारण क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जो निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभाव को और उस आत्मा को विकृत करनेवाले बंध के स्वभाव को जानकर बंध से विरक्त होता है; वही समस्त कर्मों से मुक्त होता है।
इस कथन से ऐसा नियम (सुनिश्चित ) किया जाता है कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्ष का कारण है।"
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र कर्मबंधसंबंधी विचारशृंखलारूप धर्मध्यान से मुक्ति माननेवालों को अंधबुद्धि कह रहे हैं। बंध और आत्मा के बीच किये गये भेदविज्ञान को मुक्ति का कारण बताते हुए वे यहाँ बंध का विचार करनेवाले और बंध के ज्ञानमात्र से संतुष्ट लोगों को आत्मा और बंध के द्विधाकरण में लगाना चाहते हैं । इसकारण निष्कर्ष वाक्य में वे साफ-साफ कहते हैं कि इन दोनों को आत्मा और बंध के द्विधाकरण में लगाया जाता है; क्योंकि यह सुनिश्चित है कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण ही मुक्ति का कारण है।
इसी प्रकरण पर भावार्थ लिखते हुए मुनिश्री वीरसागरजी महाराज लिखते हैं।
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