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________________ ३९९ मोक्षाधिकार जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ।।२९१।। जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं । तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं ।।२९२।। बंधाणं च सहावं वियाणि, अप्पणो सहावं च। बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।।२९३।। यथा बन्धांश्चितयन् बंधनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षम् । तथा बन्धांश्चितयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षम् ।।२९१।। यथा बंधांश्छित्वा च बंधनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम् । तथा बंधांश्छित्वा च जीव: संप्राप्नोति विमोक्षम् ।।२९२।। बन्धानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च । बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति ।।२९३।। देखो, यहाँ आचार्यदेव कर्मशास्त्र के विस्तार में जाने को प्रपंच में पड़ना कह रहे हैं। वैसे प्रपंच शब्द का अर्थ विस्तार ही होता है। तात्पर्य यह है कि आवश्यकतानुसार प्रयोजनभूत जानकारी का निषेध नहीं है; तथापि उसी में उलझे रहना और यह मानना कि यह मुक्ति क साधन है, हमें इसी से मुक्ति की प्राप्ति हो जायेगी; कदापि ठीक नहीं है। जो बात विगत गाथाओं में कही गई है, अब उसी बात को आगामी गाथाओं में सतर्क सिद्ध करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) चिन्तवन से बंध के ज्यों बँधे जन ना मुक्त हों। त्यों चिन्तवन से बंध के सब बँधे जीवन मुक्त हों ।।२९१।। छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों। त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ।।२९२।। जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को। विरक्त हों जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों ।।२९३।। जिसप्रकार बंधनों से बँधा हुआ पुरुष बंधों का विचार करने से बंधों से मुक्त नहीं होता; उसीप्रकार जीव भी बंधों के विचार करने से मुक्ति को प्राप्त नहीं करता। जिसप्रकार बंधनबद्धपुरुष बंधों को छेदकर मुक्त होता है; उसीप्रकार जीव भी बंधों को छेदकर मुक्ति को प्राप्त करता है। बंधों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो जीव बंधों के प्रति विरक्त होता है; वह कर्मों से मुक्त होता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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