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समयसार आत्मबंधयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । बंधस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्य बंधस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् ।
एतेन कर्मबन्धप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसंतुष्टा उत्थाप्यते ।।२८८-२९० ।। होने के लिए आत्मा को जानना-पहिचानना पड़ता है और आत्मा में ही जमकर-रमकर रागादिभावों को दूर करना पड़ता है। ऐसा करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है।
इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“आत्मा और बंध को अलग-अलग कर देना मोक्ष है। कोई कहता है कि बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र ही मोक्ष का कारण है; किन्तु यह बात ठीक नहीं है। कर्म से बँधे हुए जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र बंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए जीव को कर्मबंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र कर्मबंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है।
इस कथन से उनका खण्डन हो गया, जो कर्मबंध के विस्तार के ज्ञान से ही संतुष्ट हैं।"
करणानुयोग के शास्त्रों में कर्मबंधन की प्रक्रिया का विस्तार से निरूपण है। उसका अध्ययन कर जो लोग यह समझते हैं कि हमारे कर्मबंधन कट जायेंगे; क्योंकि हम तो सब जानते हैं कि कौन-सा कर्म कब बँधता है, कैसे बँधता है आदि ?
ऐसे लोगों से यहाँ कहा जा रहा है कि बंधन के स्वरूप को जाननेमात्र से बंधन नहीं कटते।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि जो कर्मशास्त्रों का अध्ययन करके संतुष्ट हैं और ऐसा मान रहे हैं कि हम बड़े धर्मात्मा हैं और हमारे कर्मबंधन तो हमारे इस कर्मशास्त्रों के अध्ययन-मनन से ही कट जायेंगे; वे बहुत बड़े धोखे में हैं; क्योंकि बंधन के ज्ञान से बंधन नहीं कटते। इस बात को आचार्य जयसेन और भी अधिक स्पष्टता से व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं -
"ज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृतियों के भेदवाले कर्मबंधनों के प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को जानता हुआ भी जीव कर्मबंधनों से मुक्त नहीं होता; किन्तु जब मिथ्यात्व और रागादि से रहित होता है, तब अनन्तज्ञानादिगुणात्मक परमात्मस्वरूप में स्थित होता हुआ सर्व कर्मबंधनों से मुक्त होता है अथवा पाठान्तर यह भी है कि जब वह उन कर्मबंधनों को छेदता है, तब मुक्त होता है।
इस व्याख्यान से उन लोगों का खण्डन हो गया, जो लोग कर्मशास्त्रों में कथित प्रकृति आदि बंध के ज्ञान से ही संतुष्ट हैं।
क्यों ?
क्योंकि स्वरूप की उपलब्धिरूप वीतरागचारित्र से रहित लोगों को बंध के ज्ञानमात्र से स्वर्गादिसुख का निमित्तभूत पुण्य तो बँधता है, पर मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
इस व्याख्यान से कर्मबंध के निरूपक शास्त्रों के अध्ययन-मनन में ही संतुष्ट लोगों का निराकरण हो गया।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यही बताया गया है कि कर्मबंध के भेद-प्रभेदों के जाननेमात्र से कर्मबंधन का नाश नहीं होता, मक्ति की प्राप्ति नहीं होती।