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________________ ४०२ समयसार आत्मबन्धयोधिाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनःकरणमीमांसायां, निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्येते; ततः प्रज्ञयैवात्मबन्धयोर्द्विधाकरणम् । ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यंतप्रत्यासत्तरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवव्यवह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्यते ? नियतस्वलक्षणसूक्ष्मान्त:संधिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणम् । तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयः, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्; समस्तसहक्रमप्रवृत्तानंतपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत् । उक्त गाथा में यही कहा गया है कि आत्मा और बंध के द्विधाकरण में एकमात्र साधन भगवती प्रज्ञा ही है। तात्पर्य यह है कि इस महान कार्य का साधन भी तेरे अन्दर ही विद्यमान तेरी बद्धि ही है। कहीं बाहर नहीं जाना है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र विस्तार से इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "आत्मा और बंध के द्विधा करनेरूप कार्य का कर्ता तो आत्मा है: किन्त करण कौन है - इस बात पर गंभीरता से विचार करने पर यह सुनिश्चित होता है कि भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है; क्योंकि निश्चय से करण कर्ता से भिन्न नहीं होता। प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और बंध का छेद करने पर वे अवश्य ही भिन्नता को प्राप्त होते हैं; इसलिए यह सुनिश्चित ही है कि प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बंध का द्विधाकरण होता है। प्रश्न - आत्मा चेतक है और बंध चेत्य है। ये दोनों अज्ञानदशा में चेत्य-चेतकभाव की अत्यन्त निकटता के कारण एक जैसे हो रहे हैं, एक जैसे ही अनुभव में आ रहे हैं और भेदविज्ञान के अभाव के कारण मानो वे दोनों चेतक ही हों - ऐसा व्यवहार किया जाता है, उन्हें व्यवहार में एकरूप में ही माना जाता है - ऐसी स्थिति में उन्हें प्रज्ञा द्वारा कैसे छेदा जा सकता है? उत्तर - आत्मा और बंध के नियत स्वलक्षणों की सूक्ष्म अन्त:संधि में प्रज्ञाछैनी को सावधानी से पटकने से उनको छेदा जा सकता है - ऐसा हम मानते हैं। अन्य समस्त द्रव्यों में असाधारण होने से, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाने से चैतन्य आत्मा का लक्षण (स्वलक्षण) है। वह चैतन्य प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय में व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है; वे समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्याय आत्मा हैं - इसप्रकार लक्षित करना चाहिए; क्योंकि आत्मा उसी एक चैतन्य-लक्षण से लक्षित है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हआ कि समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती अनन्त पर्यायों के साथ
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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