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बंधाधिकार समस्त परद्रव्यों को बलपूर्वक भिन्न करके धारावाही रूप से बहते हुए पूर्ण एक संवेदन से युक्त
(मन्दाक्रान्ता) रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्यं बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य। ज्ञानज्योति: क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।१७९।। इति बंधो निष्क्रांतः।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ बंधप्ररूपकः सप्तमोऽङ्कः । अपने आत्मा को प्राप्त करता है। इसी से कर्मबंधन को जड़मूल से उखाड़ फेंकनेवाला भगवान अपने में ही स्फुरायमान होता है।
इसप्रकार इस कलश में इस सम्पूर्ण प्रकरण का उपसंहार है, जिसमें कहा गया है कि इसप्रकार वस्तुस्वरूप जानकर, बंध की प्रक्रिया को पहिचान कर ज्ञानी जीव परलक्ष्य से उत्पन्न भावों को उखाड़ कर कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं और उनका ज्ञानस्वभाव-आनन्दस्वभाव पर्याय में भी स्फुरायमान हो जाता है। अब बंधाधिकार के अन्त में अन्तिम मंगल के रूप में ज्ञानज्योति का स्मरण करते हैं -
(सवैया इकतीसा) बंध के जो मूल उन रागादिक भावों को,
जड़ से उखाड़ने उदीयमान हो रही। जिसके उदय से चिन्मयलोक की,
यह कर्मकालिमा विलीयमान हो रही। जिसके उदय को कोई ना रोक सके. ___ अद्भुत शौर्य से विकासमान हो रही। कमर कसे हुए धीर-वीर गंभीर,
ऐसी दिव्यज्योति प्रकाशमान हो रही ।।१७९।। बंध के कारणभूत रागादिभावों के उदय को निर्दयतापूर्वक विदारण करती हुई, उन रागादि के कार्यरूप ज्ञानावरणादि कर्मों के अनेकप्रकार के द्रव्यबंध को तत्काल ही दूर करके अज्ञानांधकार को नाश करनेवाली यह ज्ञानज्योति ऐसी प्रगट हुई, सम्पन्न हुई कि अब उसके विस्तार को, प्रसार को अन्य कोई रोक नहीं सकता, आवृत्त नहीं कर सकता।
तात्पर्य यह है कि जब सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट होती है; तब रागादिक नहीं रहते, रागादि के कर्मबंधरूप कार्य भी नहीं रहते; ऐसी स्थिति में ज्ञानज्योति को आवृत्त करनेवाला कोई नहीं रहता। __अन्त में आत्मख्याति में - इसप्रकार बंध रंगभूमि से बाहर निकल गया - कहकर बंधाधिकार का समापन कर दिया गया।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में बंध का प्ररूपक सातवाँ अंक समाप्त हुआ।