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________________ मोक्षाधिकार अथ प्रविशति मोक्षः। (शिखरिणी) द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाबंधपुरुषौ नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलभैकनियतम् । इदानी-मुन्मज्जत्सहज-परमानंद-सरसं परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।।१८०।। मंगलाचरण (दोहा) बंधकथा से कभी भी न, होय बंध का नाश । आत्मसाधना से सदा, हो शिवसुख अविनाश ।। जीवाजीवाधिकार से संवराधिकार तक भगवान आत्मा को परपदार्थों और विकारी भावों से भिन्न बतलाकर अनेकप्रकार से भेदविज्ञान कराया गया है और निर्जराधिकार में भेदविज्ञानसम्पन्न आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टियों के भूमिकानुसार भोग और संयोगों का योग होने पर भी बंध नहीं होता, अपितु निर्जरा होती है - इस बात को सयुक्ति स्पष्ट किया गया है। बंधाधिकार में बंध के मलकारणों पर प्रकाश डालने के उपरान्त अब इस मोक्षाधिकार में मक्ति के वास्तविक उपाय पर प्रकाश डालते हैं। अन्य अधिकारों के समान इस अधिकार का आरम्भ भी आत्मख्यातिकार 'अब मोक्ष प्रवेश करता है' - इसप्रकार के वाक्य से करते हैं। तात्पर्य यह है कि मोक्ष भी एक स्वांग है, मूलवस्तु नहीं है। इस मोक्षाधिकार के आरंभ में सर्वप्रथम मंगलाचरण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में उस ज्ञान को स्मरण करते हैं; जिस ज्ञान ने बंध और आत्मा को भिन्न-भिन्न करके आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त किया है। मंगलाचरण के उक्त छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) निज आतमा अर बंध को कर पृथक् प्रज्ञाछैनि से। सद्ज्ञानमय निज आत्म को कर सरस परमानन्द से।। उत्कृष्ट है कृतकृत्य है परिपूर्णता को प्राप्त है। प्रगटित हुई वह ज्ञानज्योति जो स्वयं में व्याप्त है।।१८०।। अब प्रगट होनेवाले सहज परमानन्द से सरस, कृतकृत्य और उत्कृष्ट यह पूर्णज्ञान अनुभूति द्वारा निश्चित आत्मा को प्रज्ञारूपी करवत (आरा) द्वारा विदारण करके बंध और आत्मा को भिन्न-भिन्न करके आत्मा को साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ जयवंत वर्तता है। यहाँ उस पूर्णज्ञान को स्मरण किया गया है; जो सहज परमानन्द से सरस है, करने योग्य सबकुछ
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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