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समयसार
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कहे जाते वे सदा मेरे कराये किसतरह? ।।
(शार्दूलविक्रीडित ) इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसंततिमिमामुद्धर्तुकाम: समम् । आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबंध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ।।१७८।। अध:कर्म आदि जो ये पुद्गलद्रव्य के दोष हैं; उनको सम्यग्ज्ञानी कैसे कर सकता है; क्योंकि ये सदा ही परद्रव्य के गुण हैं।
अध:कर्म आदि जो ये पुद्गलद्रव्य के दोष हैं; ये दूसरे के द्वारा किये हए गुण हैं तो ज्ञानी उनकी अनुमोदना कैसे कर सकता है ?
ये अध:कर्म और औद्देशिक पुद्गलमय होने से सदा ही अचेतन कहे गये हैं। ये मेरे द्वारा किये भी कैसे हो सकते हैं। __ ये अध:कर्म और औद्देशिक पुद्गलमय होने से सदा ही अचेतन कहे गये हैं। ये मेरे द्वारा कारित भी कैसे हो सकते हैं, मेरे द्वारा कराये भी कैसे जा सकते हैं ?
उक्त चारों गाथाओं को उनके अर्थ सहित बारीकी से देखते हैं तो पहली और दूसरी गाथा तथा तीसरी और चौथी गाथा लगभग एक-सी ही हैं। पहली गाथा में करने की बात है और दूसरी गाथा में अनुमोदना की बात है। इसीप्रकार तीसरी गाथा में करने की बात है और चौथी गाथा में कराने की बात है। बस, मात्र इतना ही अन्तर है।
आचार्य जयसेन ने इन गाथाओं की जो टीका लिखी है; उसमें भी इससे अधिक कुछ नहीं है। इन गाथाओं के जुड़ने से इतना हुआ कि करने के साथ कराना और अनुमोदना करना भी जुड़ गये हैं। इसप्रकार नवकोटि से त्याग की बात पर बल पड़ गया है।
ये गाथायें बंधाधिकार की अन्तिम गाथायें हैं। इसकारण इनमें बंध की प्रक्रिया व उसके अभाव की प्रक्रिया समझाकर भगवान आत्मा को उससे पार बताया गया है; उसे बंध का अकारक बताया गया है। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सवैया इकतीसा) परद्रव्य हैं निमित्त परभाव नैमित्तिक,
नैमित्तिक भावों से कषायवान हो रहा। भावीकर्मबंधन हो इन कषायभावों से,
बंधन में आतमा विलीयमान हो रहा ।। इसप्रकार जान परभावों की संतति को.
जड़ से उखाड़ स्फुरायमान हो रहा। आनन्दकन्द निज-आतम के वेदन में,
निजभगवान शोभायमान हो रहा ।।१७८।। इसप्रकार परद्रव्य और अपने भावों की निमित्त-नैमित्तिकता का विचार भली-भाँति करके परद्रव्यमूलक इन बहुभावों की संतति को एक ही साथ उखाड़ फेंकने का इच्छुक पुरुष उन