________________
समयसार
३९२ अभाव भी हो जायेगा; जो सभी को इष्ट है। द्रव्यभावयोर्निमित्तनैमित्तिकभावोदाहरणं चैतत् -
आधाकम्मादीया पोग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणा दु जे णिच्वं ।।२८६।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं । कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ।।२८७।।
अध:कर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य च इमे दोषाः। कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम् ।।२८६।। अध:कर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं ।
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम् ।।२८७।। यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तिकं भावं न प्रत्याचष्टे।
तात्पर्यवृत्ति में बंधाधिकार यहाँ समाप्त हो जाता है। इन गाथाओं के बाद जो दो गाथायें आत्मख्याति में आती हैं; वे तात्पर्यवृत्ति में पहले ही आ गई हैं।
विगत गाथाओं और उसकी टीका में द्रव्यप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण तथा द्रव्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव बताया गया है।
अब आगामी गाथाओं में द्रव्य और भाव की उसी निमित्त-नैमित्तिकता को सोदाहरण समझाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) अध:कर्मक आदि जो पुद्गल दरब के दोष हैं। परद्रव्य के गुणरूप उनको ज्ञानिजन कैसे करें ?।।२८६ ।। उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन ।
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों? ॥२८७।। अध:कर्मादि जो पुद्गल द्रव्य के दोष हैं; उन्हें ज्ञानी (आत्मा) कैसे करे ? क्योंकि वे तो सदा ही परद्रव्य के गुण हैं।
पुद्गलद्रव्यमय अध:कर्म और उद्देशिक मेरे किये कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि वे सदा अचेतन कहे गये हैं। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसप्रकार अध:कर्म और उद्देश्य से उत्पन्न निमित्तभूत आहारादि पुद्गलद्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा (मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भाव का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग नहीं करता; उसीप्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उनके निमित्त से