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________________ बंधाधिकार ३९१ रागादिभाव नैमित्तिक हैं। यद्येवं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात्, तदनर्थकत्वेत्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभाव: प्रसजेच्च । तत: परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा। तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावत्कतॆव स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च, यदा तु भाव प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकतैव स्यात् ।।२८३-२८५॥ ___ यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान के कर्तृत्व के निमित्तत्व का उपदेश निरर्थक ही होगा। उसके निरर्थक हो जाने पर एक आत्मा को ही रागादिभावों का निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्यकर्तृत्व का प्रसंग आयेगा और उससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा। __इसलिए परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का अकारक ही है। इसप्रकार यद्यपि आत्मा रागादिभावों का अकारक ही है; तथापि जबतक वह निमित्तभूत परद्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं होता। इसीप्रकार जबतक इन रागादिभावों का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक वह इन भावों का कर्ता ही है। जब आत्मा निमित्तभूत द्रव्य का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है; तभी नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है और जब इन भावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है; तब वह साक्षात् अकर्ता ही है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह भगवान आत्मा स्वभाव से तो रागादिभावों का अकर्ता ही है; तथापि जब रागादिभावों का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है, तब साक्षात् अकर्ता होता है। रागादिभावों के वास्तविक कर्ता तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान अथवा अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान से संयुक्त जीव ही हैं। __ इसीलिए जिनागम में द्रव्य और भाव अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान के त्याग का उपदेश दिया गया है। यदि आत्मा ही रागादि का कर्ता हो तो फिर इन प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के उपदेश की आवश्यकता ही क्यों रहे? एक बात यह भी है कि आत्मा तो नित्य है, सदा ही रहनेवाला है; उसे रागादि का कर्ता मानने पर रागादि भी सदा होते रहेंगे। अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान अनित्य है; इसकारण रागादिभाव भी तभी तक होंगे, जबतक कि अप्रतिक्रमण व अप्रत्याख्यान है। इनके अभाव होने पर रागादि का
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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