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समयसार अपितु उस परद्रव्य के द्वारा ही शुद्धस्वभाव से च्युत होता हआ रागादिरूप परिणमित किया जाता है; जो परद्रव्य स्वयं रागादिरूप होने से आत्मा के रागादिरूप परिणमन में निमित्त होता है। - ऐसा वस्तु का स्वभाव है।"
(उपजाति) न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांतः। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।
(अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः।
रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ।।१७६।। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार स्फटिकमणि के लाल रंगरूप परिणमन में शुद्धस्वभाववाला स्फटिकमणि स्वयं तो निमित्त हो नहीं सकता, जवापुष्प आदि कोई परद्रव्य ही उमसें निमित्त होता है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के रागरूप परिणमन में शुद्धस्वभाववाला भगवान आत्मा स्वयं तो निमित्त हो नहीं सकता, क्रोधादिरूप कोई कर्म का उदय ही उसमें निमित्त होता है। भाव यह है कि आत्मा का रागादिरूप परिणमन नैमित्तिकभाव है, उपाधिभाव है, कर्मोदयजन्य भाव है, विभावभाव है; स्वभावभाव नहीं। अब इसी अर्थ का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सोरठा ) अग्निरूप न होय, सूर्यकान्तमणि सूर्य बिन ।
रागरूप न होय, यह आतम परसंग बिन ।।१७५।। जिसप्रकार सूर्यकान्तमणि स्वतः से ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता; उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्य का बिंब निमित्त है; उसीप्रकार आत्मा स्वतः से ही रागादिभावरूप नहीं परिणमता; उसके रागादिरूप परिणमन में निमित्त परसंग ही है। वस्तु का ऐसा स्वभाव सदा ही उसे प्रकाशमान है।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि रागादिरूप परिणमन आत्मा का स्वभाव नहीं है, स्वभावभाव नहीं है; अपितु परसंग से उपजा विभाव है, विभावभाव है।
यद्यपि यह बात भी सत्य है कि पर ने कुछ नहीं कराया है; तथापि यह भी सत्य है कि इस विकार का मूल हेतु परसंग है, स्वयंकृत परसंग ही है। ____ अब आचार्य अमृतचन्द्र आगामी कलश में कहते हैं कि इसप्रकार के वस्तुस्वरूप से परिचित ज्ञानीजीव रागादिभावों में एकत्वबुद्धि नहीं करते। यह कलश आगामी गाथा की उत्थानिका का काम भी करता है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) ऐसे वस्तुस्वभाव को, जाने विज्ञ सदीव। अपनापन ना राग में, अत: अकारक जीव ।।१७६।।