SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधाधिकार ३८७ चूँकि ऐसे अपने वस्तुस्वभाव को ज्ञानीजीव जानते हैं; इसकारण वे रागादि को निजरूप नहीं करते, रागादि में अपनापन स्थापित नहीं करते। यही कारण है कि वे रागादि के कर्ता नहीं हैं। ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा । सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ।। २८० ॥ न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा । स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम् ।।२८० ।। —यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रव्यक्ते, ततो समद्वेषमोहादिभावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकतैवेति प्रतिनियमः ।। २८० ।। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि वस्तुस्वरूप को जाननेवाले ज्ञानी जीव रागादि विकारी भावों में अपनापन स्थापित नहीं करते, उन्हें अपना नहीं जानते, अपना नहीं मानते; इसकारण वे रागादिभावों के कर्ता-भोक्ता भी नहीं हैं । जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को गाथा द्वारा कहते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष- कषाय को । इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ।। २८० ।। ज्ञानी राग-द्वेष-मोह अथवा कषायभावों में अपनापन नहीं करता; इसकारण वह उन भावों का कारक नहीं है अर्थात् कर्ता नहीं है । इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है “यथोक्त वस्तुस्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी स्वयं के शुद्धस्वभाव से च्युत नहीं होता; इसकारण वह मोह-राग-द्वेष भावों रूप स्वयं परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता। यही कारण है कि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावरूप ज्ञानी रागद्वेष-मोह आदि भावों का अकर्ता ही है - ऐसा नियम है ।' ,, गाथा में तो मात्र यही कहा गया है कि ज्ञानी रागादिभावों का कर्ता नहीं है; किन्तु टीका में यह भी कह दिया है कि ज्ञानी जीव न तो स्वयं रागादिभावरूप परिणमित होता है और न दूसरों के द्वारा ही रागादिरूप परिणमित किया जाता है । इसप्रकार ज्ञानी किसी भी प्रकार से रागादिभावरूप परिणमित नहीं होता - इसकारण वह रागादि का अकर्ता है। चूँकि अज्ञानी उक्त परमसत्य को नहीं जानता - इसकारण वह रागादिभावों का कर्ता होता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy